‘आ’ अब लौट चलें, ‘टूटती’ आस्थाएं!, पुकारती ‘मां भारती’
By : madhukar dubey, Last Updated : January 7, 2023 | 7:55 pm
उदाहरण स्वरूप ज्योतिष ने बिना टेलीस्कोप की मदद के बिना बता दिया था, कितने ग्रह, नक्षत्र हैं। इनकी दूरी पृथ्वी से कितनी है। इनका मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। उसकी विशद व्याख्या भी जनमानस के सामने रखा। इसी तरह चिक्तिसा और विज्ञान के क्षेत्र में अतुलनीय योगादान हमारी सभ्यताओं ने दिया। इतना ही नहीं, वसुधैव कुटुम्बकम की परिकल्पना हम भारतीय की है। मतलब पूरा विश्व ही अपना परिवार है।
खैर, इन उच्चमानक और आदर्शों वाली संस्कृति और सभ्यता में पोषित जन आज अन्य संस्कृति को अपनाने के लिए लालायित हैं। इसकी वजहें, जो भी हो। लेकिन ये दर्शाती हैं, जब तक किसी भी व्यक्ति को अपने परिवार और संस्कृति के प्रति सम्मान रूपी द्ष्टि्रकोण नहीं होगा। तब तक वह अपने मूल वजूद को नहीं पहचान पाएगा। इसकी नैतिक जिम्मेदारी संस्कृति और पोषकों की भी जिम्मेदारी है। जैसी जिम्मेदारी राष्ट्रपिता ने निभाई थी। याद कीजिए, अगर बापू विदेश कपड़ों की होली नहीं खेली होती तो ‘स्वदेशी’ का जागरण नहीं हो पाता। इसलिए ये सभी की जिम्मेदारी है कि हम अपने संस्कृति व सभ्यता के पोषक बने। तभी आने वाली पीढ़ी को भी अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व महसूस होगा। ऐसे में दूसरी और नवीनत संस्कृति और सभ्यताओं की आकर्षित नहीं होंगे। ये किसी एक स्थान की बात नहीं है, ये पूरे देश की है। जहां कुछ सम्प्रदाय के लुभावन और बनावटी चमत्कार के चक्कर में पड़कर, उनके सम्मोहन के जाल में फंस रहे हैं।