‘जिंदगी… कैसी है पहेली हाय’, शायद सलील नहीं होते तो इस गुत्थी को कोई सुलझा नहीं पाता
By : hashtagu, Last Updated : September 5, 2024 | 11:50 am
इस संगीतकार ने कभी संगीत की पारंपरिक शिक्षा नहीं ली। लेकिन, कहते हैं न कि मां सरस्वती का आशीर्वाद संसाधनों से नहीं साधना से हासिल किया जाता है। यही सलील दा के साथ हुआ था। वह संगीतकार बनना चाहते थे लेकिन, उनके पास साधन नहीं थे। बड़े भाई एक ऑर्केस्ट्रा में काम करते थे, उनके साथ रहकर ही सलील दा ने कई तरह के वाद्य यंत्र बजाना सीख लिया। बचपन से संगीत की स्वर लहरियों को अपने होठों से बांसुरी लगाकर निकालने वाले सलील चौधरी के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन उनके तैयार किए धुन की दुनिया दीवानी हो जाएगी।
देश जब आजादी के लिए छटपटा रहा था तो सलील चौधरी भी उस मुक्ति संघर्ष के नायक बन गए और अपने गीतों के जरिए आजादी का अलख जगाते रहे। उनके गीतों से लोग इतने प्रभावित हुए कि अंग्रेजी सरकार को उन पर प्रतिबंध लगाना पड़ गया।
देश आजाद हो गया और फिर दौर आया 1950 का। सलील चौधरी तब तक गीतकार और संगीतकार के रूप में बांग्ला भाषा में अपनी खास पहचान बना चुके थे और अब उनकी अगली मंजिल मुंबई थी। वह वहां पहुंचे तो उन दिनों विमल राय अपनी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए संगीतकार की तलाश कर रहे थे। उनको सलील दा के संगीत ने काफी प्रभावित किया था ऐसे में उन्होंने इस फिल्म में संगीत देने का जिम्मा सलील दा को सौंप दिया। 1953 में फिल्म रिलीज हुई और इसके सुपरहिट गानों ने सलील चौधरी को सलील ‘दा’ बना दिया।
‘दो बीघा जमीन’ की सफलता ने सलील दा को विमल राय का चहेता संगीतकार बना दिया। इसके बाद ये जोड़ी हिट पर हिट देती रही। इनके साथ गीतकार शैलेन्द्र भी शामिल थे। ऐसे में सलील-शैलेन्द्र की जोड़ी ने एक से बढ़कर एक बेहतरीन गीत भारतीय सिनेमा के दर्शकों के लिए तैयार किए। हालांकि सलील दा और गुलजार की जोड़ी भी लोगों को खूब पसंद आई। दोनों की जोड़ी ने 1960 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘काबुलीवाला’ में काम किया और फिर क्या था दर्शकों ने इस जोड़ी के गानों को भी अपने दिल में बसा लिया।
फिल्म ‘मधुमति’ के लिए सलिल चौधरी सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के ‘फिल्मफेयर पुरस्कार’ से सम्मानित हुए। 1988 में उन्हें ‘संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1960 में फिल्म ‘काबुलीवाला’ में सलील दा के संगीत निर्देशन में एक गाना था “ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान..” जिसे पार्श्वगायक ‘मन्ना डे’ ने अपनी आवाज़ दी थी, यह गीत आज भी श्रोताओं की आंखों को नम कर देता है। हालांकि 70 के दशक के आते-आते वह मायानगरी की चकाचौंध से उबरने लगे थे। ऐसे में वह फिर से कोलकाता की तरफ वापस मुड़ गए। उन्होंने 75 से ज्यादा हिंदी फिल्मों को अपने संगीत से संवारा। इसके साथ ही सलील दा ने बांग्ला, मलयालम, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, गुजराती, असमिया, उड़िया और मराठी फिल्मों में भी संगीत दिया।
19 नवंबर सन 1925 को पश्चिम बंगाल के गाजीपुर गांव में पैदा हुआ सलील चौधरी कहानी लेखन, संगीत निर्माण सहित कई विधाओं के महारथी थी। संगीत में महारत हासिल करने वाले सलील दा ने कभी अपने करियर में ढलान नहीं देखा इसकी वजह एक ही थी कि उनकी लोकसंगीत और पाश्चात्य संगीत पर बराबर की पकड़ थी।
“कोई होता अपना जिसको”, “सुहाना सफर और ये मौसम हंसी”, ”जिंदगी… कैसी है पहेली हाय”, “कहीं दूर जब दिन ढल जाए”, “दिल तड़प तड़प के कह रहा है”, “मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने”, “रजनीगंधा फूल तुम्हारे”, “जानेमन जानेमन, तेरे दो नयन” जैसे गानों की धुनों को अपने चाहने वाले के हवाले कर 5 सितंबर 1995 को सलिल दा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
सलील दा का चमत्कार ही कहिए कि फिल्म ‘हाफ टिकट’ का एक गाना अभिनेता प्राण पर फिल्माया जाना था और उनसे बात करके इस गाने को किशोर कुमार ने गा दिया। अब आप सोच रहे होंगे कि एक पुरुष गायक एक गायिका की आवाज में कैसे गा सकता है। किशोर दा ने यह भी सलील चौधरी के संगीत निर्देशन में कर दिखाया और जब वह गाना ‘आके सीधी लगी…’ तैयार हुआ तो कोई भरोसा ही नहीं कर पा रहा था।
इस गाने की कहानी भी दिलचस्प थी। लता मंगेशकर को ये गीत गाना था लेकिन इससे पहले ही किशोर दा ठान के बैठे थे कि आवाज तो उन्हीं की होगी। आखिरकार हुआ भी ऐसा। लता दीदी रिकॉर्डिंग स्टोडियो तक पहुंचने में देर कर गईं और किशोर दा ने महिला और पुरुष दोनों का हिस्सा गाया और बखूबी निभाया।
सलील दा का संगीत पानी सा था। जो दिल की गहराइयों में उतर जाता था, आज भी उनके गाने रूह को सुकून दे जाते हैं। सलिल चौधरी ‘डिज़ाइन’ के बजाय ‘डिज़ायर’ पर चलने और संगीत रचने वाले संगीतकार था।