नई दिल्ली, 23 जनवरी (आईएएनएस)| सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सोमवार को धर्मातरित दलितों के लिए अनुसूचित जाति के दर्जे की जांच के लिए आयोग गठित करने के केंद्र के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, “आप कौन हैं? इस मामले में सुनवाई तो पहले से ही चल रही है।”
वकील ने तर्क दिया कि जब शीर्ष अदालत (Supreme Court) पहले से ही मामले की सुनवाई कर रही है तो आयोग का गठन नहीं किया जाना चाहिए था।
पीठ में न्यायमूर्ति ए.एस. ओका ने पूछा कि क्या याचिकाकर्ता आयोग के गठन को चुनौती दे रहा है, और आगे सवाल किया कि कौन सा नियम या कौन सा कानून याचिकाकर्ता को ऐसा करने की अनुमति देता है?
वकील ने तर्क दिया कि अदालत को आगे बढ़ना चाहिए और आयोग को रास्ते में नहीं आना चाहिए। हालांकि, पीठ ने वकील से कहा कि इस तरह की याचिका, जो आयोग के गठन और कामकाज को रद्द करने की मांग करती है, को संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत स्वीकार नहीं किया जा सकता।
पीठ ने याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए कहा कि आयोग के गठन को रद्द करने के लिए उसके पास कोई प्रासंगिक आधार नहीं है। शीर्ष अदालत का यह आदेश प्रताप बाबूराव पंडित द्वारा दायर याचिका पर आया।
पिछले साल अक्टूबर में केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन को उन दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के दावों की जांच करने के लिए कहा था, जो अन्य धर्मो में परिवर्तित हो गए।
आयोग में सदस्य के रूप में सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी डॉ. रविंदर कुमार जैन और प्रोफेसर सुषमा यादव (सदस्य, यूजीसी) भी शामिल हैं। आयोग नए व्यक्तियों को अनुसूचित जाति (एससी) की स्थिति के मामले की जांच करेगा, जो ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति के होने का दावा करते हैं, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत समय-समय पर जारी किए गए राष्ट्रपति के आदेशों में उल्लिखित धर्म के अलावा अन्य धर्म में परिवर्तित हो गए हैं। राष्ट्रपति के आदेशों ने केवल हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म का पालन करने वालों को एससी का दर्जा दिया। आयोग अनुसूचित जातियों की मौजूदा सूची के हिस्से के रूप में ऐसे नए व्यक्तियों को जोड़ने के मौजूदा अनुसूचित जातियों पर पड़ने वाले प्रभाव की जांच करेगा।
पिछले साल नवंबर में केंद्र सरकार ने अपने लिखित जवाब में सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि वे छुआछूत से पीड़ित नहीं हैं।
शीर्ष अदालत ने 30 अगस्त को केंद्र से ‘दलित ईसाइयों की राष्ट्रीय परिषद’ और अन्य द्वारा दायर याचिकाओं पर इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था। केंद्र सरकार ने एक लिखित जवाब में कहा, “संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित था, जो स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि ईसाई या इस्लामी समाज के सदस्यों द्वारा कभी भी इस तरह के पिछड़ेपन या उत्पीड़न का सामना नहीं किया गया था।”
सरकार ने आगे कहा कि अनुसूचित जातियों के लोग इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के कारणों में से एक है, अस्पृश्यता की दमनकारी व्यवस्था से बाहर आना, एक सामाजिक कलंक है, जो ईसाई या इस्लाम दोनों में प्रचलित नहीं है।
केंद्र की प्रतिक्रिया उन याचिकाओं के एक बैच पर आई है, जो दलितों को ईसाई धर्म या इस्लाम में धर्मातरित करने के लिए आरक्षण के लाभ का विस्तार करने की मांग कर रहे थे।