छाने लगीं चुनावी घटाएं : नेता जी बात ‘पते’ की समझ सको तो!…जनता ‘जनार्दन’ की जय हो

By : madhukar dubey, Last Updated : June 26, 2024 | 6:50 pm

रायपुर। इसने कर दिया बंटाधार तो कोई कहेगा ये खूब लूटा। बजेगी तालियां और भी लगेंगे नारे। चुनावी में ताल ठोंकने के लिए नेता जी (Netaji) फूले नहीं समा रहे। अब नहीं तो फिर कभी नहीं की तर्ज पर अपने समर्थकों की टोली के सक्रिय हो जाएंगे। अभी सिर्फ कानाफूसी और दूसरे की ताक-झांक में लगे हैं। अपनी दावेदारी के लिए खुद न आगे आकर दूसरों से नाम लिवाए जा रहे हैं। पार्टियों के नेता जी। अपने-अपने पार्टी के कुनबे में बड़े ओहदेदारों के यहां चक्कर लगा रहे हैं। क्योंकि चुनावी मानसून (Election monsoon) का छोटा ही सही मौसम तो बनता है चुनाव लड़ने का । क्या पता किसी किस्मत कहां से चमक जाए और फिर तो आगे रास्ता भी आसां होना लाजमी है। सियासतबाजों की दुनिया में जोड़ तोड़ की जुगत और एक दूसरे को मात देने की चुनावी शतरंजी चालें भी तैयार हैं। बस नाम फाइनल भर होने की देरी है। एक नेता जी कहते हैं कि नाम में क्या रखा है, जिस पर मेहरबानी होगी उसका ही नंबर लगेगा, लेकिन अभी से कम से कम चर्चा तो हाेना ही चाहिए। क्योंकि बारिश से पहले चुनावी मानसून का बनना जरूरी है।

  • ये दीगर है कि उम्मीदें और हसरतों पर कड़कती तेज बिजली गिरने से बचाना भी पहली प्राथमिकता नेता जी की है। नेता जी का एक ही मंत्र है, टिकट के लिए कर्म करो, बाकी तो भगवान जानें, क्या पता किस्मत में हो तो चांस मिल ही जाए। बन रहे लघु चुनाव में पब्लिक भी बोल रही, भैया, विधानसभा चुनाव में टिकट के लिए सिरफुटव्वल और पार्टी छुड़व्वल तो किसी से छिपी नहीं है। हम जानते हैं, भाई ये सेवा के लिए नहीं मेवा के लिए लड़ते हैं। कोई बने या जीते-हारे! नेता जी, जीतने के बाद कहां झांकने वाले। चुनाव खत्म तो मिलने जुलने की बात खत्म। खुदाखास्ता कहीं ‘राम भरोसे’ काम हो गया तो ऊपर वाले की ‘बला’ से!

यहां छत्तीसगढ़ के चुनावी मौसम का मानसून सिर्फ एक ही विधानसभा सीट पर बनेगी। हो सकता है कि प्रदेश के अन्य हिस्सों में नगरीय मानसून की फुहारें पड़े। अगर ऐसा हुअा तो पार्टियों के सियासी महारथियों की टोलियां जगह-जगह कूच करेंगे। और फिर छिड़ जाएगी जुबानी जंग। वैसे प्रदेश के नगरीय चुनावों पर सत्तासीन पार्टी और विपक्ष में तेज जंग होने की संभावना है। क्योंकि विपक्ष भी कोई कमतर नहीं है, उसके भी 35 विधायक निर्वाचित होकर आए हैं। ऐसे में नगरीय निकाय चुनाव में वहीं दूसरी ओर सत्ताधारी नेताओं के लिए तो ‘क्लीन स्विप’ ही लक्ष्य तय होगा।

  • परिणाम चाहे जो भी आए लेकिन लोकसभा चुनाव में केंद्र की लड़ाई थी। इस बार शहर और नगरी सरकार के वर्चस्व की लड़ाई दिखेगी, जो बेहद मोहल्लों की ‘मूलभूत सुविधाओं’ को लेकर एक-दूसरे पर वार-पलटवार होंगे। इसमें सबसे रोचक होगा कि कितने लोग पार्टी के आधार पर तो कितने गली-मोहल्ले के ‘असल मुद्दों’ पर वोट करते हैं। वैसे नगरी और शहरी सरकार चुनने के दौरान जनता ‘जर्नादन’ लोकल समस्याओं के आधार पर ही वोट करती है।

इतना तो तय है कि वर्तमान पार्षद के लिए राहें काफी दुश्वारियां भरी होंगी, क्योंकि आज भी राजधानी सहित कई नगरी हिस्से हैं, जहां बारिश के समय जलभराव और गंदगी के निस्तारण की समस्या पांच साल से जस की तस विद्यमान है। ऐसे में उनके लिए जनता से वोट मांगने के दौरान खासतौर पर इन समस्याओं पर क्या जवाब होता है, वह देखने वाली बात होगी। क्योंकि नगरीय निकाय की सरकारों के खिलाफ जनता में जबरदस्त आक्रोश भी है। ऐसे में मच्छर से बचने नेता जी जालीदार कुर्तें और अपने तर्क के ताना बाना अभी से बुनने लगे। क्योंकि वर्तमान पार्षदों के सामने तो चुनौती है, कि कैसे वे जनता का सामना करें। लेकिन जिन्हें पहली बार नगरी और शहरी सरकार में पार्षद की कुर्सी पानी है, उनके लिए तो मुद्दे ही मुद्दे हैं।

  • गालिब ने सही फरमाया है, वादा तेरा वादा, तेरे वादे पर मारा गया। कुछ ऐसा ही तरन्नुम गुनगानते हैं मियां। चमक-दमक से भरी राजधानी की गलियों की कहानी तो किसी से छिपी नहीं है, तालाब और स्मार्ट सिटी की योजनाओं तो मूर्तरुप लेते-लेते दम तोड़ती नजर आती हैं, जो आए दिन किसी न किसी अखबार की सुर्खियां बनती हैं कभी मीडिया ‘चमक रहा तेज तुम्हारा’ वाला शीर्षक तो कभी असल ‘जनमुद्दों’ को उठाने की हिम्मत करती है तब सच्ची ‘तस्वीरों’ में बेड़ा गर्क की ‘अबूझ’ कहानी दिखती है। इसे भी पब्लिक बखूबी समझती है, क्योंकि अपनी गाढ़ी कमाई से संपत्ति कर और पानी बिल चुका रही। टैक्स देने के बावजूद वहीं दुश्वारियां जो झेलते आ रहे हैं, उससे राहत नहीं मिलने से आम आदमी का सिस्टम के प्रति ‘मन उचाट’ होना तो स्वभाविक है। लेकिन क्या, करें, जितने लोग उतने राग। किस राग अलापी पर विश्वास करें।

ये चुनौती नेता जी पर है, अपनी छवि कैसे सुधारें?  पब्लिक सिर्फ 5 साल बाद वोट देने का काम करती है। वैसे नेता नगरी से प्रति जनता का बिछोह और क्षोभ तो नोटा के वोटों से आंकलन करना चाहिए। बीते, लोकसभा और विधानसभा में इसकी बानगी एक दो जगहों पर नहीं पूरे देश में देख सकते हैं। जो अत्यंत विचारणीय प्रश्न है! इस पर सभी समस्याओं से ज्यादा शोध करने की और नोटा के प्रति लोगों के रुझान को पढ़ने की जरुरत है, इसके कारणों को दूर करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग से ज्यादा पार्टियों के नेताओं और सरकारी तंत्र की है।…. तब नेता जी बोलेंगे, जय हो जनता जर्नादन की।

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