वाद्य यंत्रों की टंकार-नृत्य की झंकार से आदिवासी संस्कृति के दर्शन, पढि़ए एक समीक्षात्मक रिपोर्ट

भाषाओं और संस्कृति को समझने के लिए बस मन के द्वार खोलो, आत्म मंथन से इंसान क्या पशु-पक्षी के भाव भी पढ़ लेंगे

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  • Publish Date - November 2, 2022 / 07:26 PM IST

भाषाओं और संस्कृति को समझने के लिए बस मन के द्वार खोलो, आत्म मंथन से इंसान क्या पशु-पक्षी के भाव भी पढ़ लेंगे

छत्तीसगढ़/रायपुर (समीक्षात्मक रिपोर्ट)। वक्त था, साइंस कालेज में राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य, जहां देश विदेश के कलाकार आये थे। इनकी लोक कलाओं को देखने के बाद कुछ मन में एक द्वंद्व उठा। लगा कि सिर्फ खबर का संकलन करने मात्र से जिम्मेदारी पूरी नहीं होती। बल्कि एक लेखक होने के नाते लोगों के अंर्तमन में उठे भावों को भी लोगों से अवगत कराया जाए। मेरी बात कुछ इस तरह से शुरू होती है।

इनके नृत्य में दिखी आदिवासी लोक कलाओं की संस्कृति की झलक

अगर आप अंर्तमन से किसी भी भाषा और लोक कला-संस्कृति को देखेंगे तो आप को खुद ब खुद उसकी समझ पैदा हो जाएगी। कारण है कि जैसे प्रेम की भाषा मौन है, ठीक उसी प्रकार किसी भाषा की जानकारी भले ही न हो और न ही उस कला के बारे में लेकिन आप एकाग्रचित भाव से उसके सांकेतिक भाव को समझने की कोशिश करेंगे ताे सब कुछ समझ में आ जाएगा। जब आप सत्य से स्वफूर्त उनके मूल भाव को जानेंगे तो रोमाचिंत होने से नहीं रोक पाएंगे। कुछ ऐसा ही अहसास आज राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में देखने का मौका मिला।

जैसे ही दो पल बीता तो आनंद में डूबने लगे

जैसे ही सीएम और अन्य अतिथियों का वंदन और अभिनंदन समाप्त हुआ तो घोषणा हुई आदिवासी नृत्य की। आगाज शुरू जो हुआ, इसके बाद एक से बढ़कर एक बेमिसाल देश और विदेश के आदिवासी नृत्य की। इनके भाव प्रसंगों को समझने में दर्शकों को देरी नहीं लगी। जिनका मन इनके नृत्य के रंग में रम गया था, वे नृत्य कार्यक्रम के अंत कर जुटे रहे। कुछ लोग तो चर्चा भी कर रहे थे, वाह! यहां तो दूसरे दिन पूरे परिवार के साथ आएंगे। ये बातें यह समझने के लिए काफी थी कि व्यक्ति भाषाओं की परिधी से ऊपर है। जो इस बात का गवाह बना साइंस कालेज का मैदान। जहां आदिवासी नृत्य में लोग लुफ्त उठाने में पीछे नहीं रहे। आनंद में गोता लगाने के लिए युवा नहीं, बच्चे भी पीछे नहीं दिखे क्योंकि इनके नृत्य में पशु पक्षी यानी सभी प्राकृतिक चीजों का समावेश था। जो यह संदेश देता है कि भाषा चाहे मानव की हो पशु पक्षी अगर मन के द्वार खोलेंगे तो सब कुछ समझ जाएंगे।

संदेश दिया, पूरा विश्व ही परिवार, चाहे मनुष्य हो या प्रकृति

आज का इंसान भले ही आधुनिकता की चकाचौंध में बदल गया हो, लेकिन इसके पुरातनकाल की दशा और दिशा पर नजर डालेंगे तो रहस्य से पर्दा उठेगा। पर अफसोस इतिहास के पन्नों में आदिवासी संस्कृति के बारे में ज्यादा कुछ इतिहाकारों ने नहीं लिखा। लेकिन स्थानीय स्तर पर इसे सहेजने का काम भी खुद आदिवासी समुदाय ने ही किया। वह भी बड़े ही सजगता और रोचकता के साथ। क्योंकि यह समुदाय अशिक्षा के घोर के अंधकार में जी रहा था। यही वजह भी थी कि इनकी लोक कलाएं आैर संस्कृति के जरिए अपनी ऐतिहासिकता को बनाए रखा। अब इनकी लोक कलाओं को देखने के बाद सहसा ही लोगों को यह आभास होता है कि हम भी अपने पूर्वजों की तरह आदिम संस्कृति के ही वशंज है। क्योंकि पहले मानव भी जल-जंगल और जमीन से ही जुड़ा। जिसके जरिए वह अपना जीवन यापन करता था। आज पूरे विश्व में आदिवासी संस्कृति नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता मिल चुकी है। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समुदाय सिर्फ भारत में ही है, आज पूरे विश्व में होने की मौजूदगी का अहसास सभी को हो गया है।

इस नजरिए से सनातन धर्म में भी आदिवासी परंपरा के भाव

यहां एक चर्चा करना जरूरी है कि सनातन धर्म में जिस शिव को हम शिवलिंग, शंकर के स्वरूप को पूजा जाता है। पूर्व में इन्हीं शंकर को पशुपति भगवान के रूप में आदिम समाज पूजता था। यानी सृष्टि को रचने वाला एक ही ईश्वरीय शक्ति है, जिसे अलग-अलग धर्म के लोग अलग-अलग नाम और स्वरूपों के रूप में पूजते हैं। इसी समुदाय से आदिम युग में लोगों ने प्रकृति को पूजना शुरू किया। इसमें जैसे मसलन हम उदाहरण के रूप में सूर्य, चंद्रमा, यानी सभी 9 ग्रह और नक्षत्र साथ ही पेड़-पौधों को भी किसी न किसी भगवान के रूप में पूजते हैं। यही कारण है आदिवासी प्रकृति के हर कण को पूजते हैं। जो इसके नृत्य के परिधानों और नृत्य की क्रिया-कलापों में दिखती है, जहां वे पशु पक्षी के वेशभूषा धारण कर संदेश देते नजर आते हैं कि पूरा विश्व ही परिवार है। इतना ही नहीं रामायण और महाभारत में भी आदिवासी वीर महापुरुष और महान भक्त शबरी सहित अनगिनत महान आदिवासियों की गौरव गाथा विद्यमान है। अब संक्षेप में बात खत्म करता हूं, मूल कहने का तात्पर्य है कि इनकी सभ्यताएं किसी न किसी धर्म आज भी विद्यमान है, उन्हें विरासत के रूप में पीढी दर पीढ़ी स्थानांतरित होकर अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं।

लोक कलाओं के जरिए को खुद के इतिहास को भी कायम रखा

हां, एक बात तो तय है कि लोक कलाओं के माध्यम से इसलिए आदिवासी समाज ने अपनाया। क्योंकि उस समय शिक्षा का कोई आधार इस समुदाय में नहीं था। वह अपनी ही दुनिया में जीते थे। यही वजह थी कि नृत्य, गीत और नाट्य शैली का जन्म हुआ। फिर इसी में हर एक विधा में वे अपने जनजीवन पर आधारित नृत्य और कलाओं के माध्यमों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अपने इतिहास के वजूद बनाए रखे। जो धीरे-धीरे परिष्कृत भी होता रहा लेकिन मूलभाव को बनाये रखने के लिए इन्हें अलग-अलग अपने समुदाय के कलाओं के माध्यम बचाए रखा। वैसे अाप लोगों को याद होगा कि लेखन की विधा के अविष्कार के पूर्व पहले कंठस्थ विद्या का ही हमारे जनजीवन में चलन था। लेकिन समय के च्रक के साथ हालात भी बदले और भोज पत्र फिर कागज का आविष्कार हुआ। इसके बाद पहले लोगों ने अपने पूर्वजों और वंशजों के बारे में रिकार्ड के रूप में जानकारी हासिल कर लिखना शुरू किया। धीरे-धीरे इतिहास लिखने सहित अन्य विधाएं प्रचलित हुई। लेकिन इन सबसे आज भी आदिवासी अछूता ही रहा। यही वजह है इनके लोक कलाओं के ही माध्यम से इन्हें जाना और पहचाना जा सकता है।