छत्तीसगढ़/रायपुर। नृत्य कलाएं हमारी धरोहर और मानव जीवन के अस्तित्व से जुड़ीं हैं। इन कलाओं के जन्म के पीछे भी एक कहानी है। क्योंकि कहा जाता है जिस मनुष्य को कला के प्रति अनुराग न हो तो वह पशु के समान है। कला चाहे कोई भी हो। चाहे नृत्य हो या संगीत। इसके सुर लय ताल और नृत्य की झंकार में जीवन की सतरंगी छटा छिपी होती है। ऐसा ही एक सनातनी और पुरातन वाकया है जब माता पार्वती रूठ गईं तो उन्हें कैसे मनाया गया। इसकी सुंदर प्रस्तुति धनगरी गजा लोकनृत्य के माध्यम से महाराष्ट्र के सांगली के लोककलाकारों ने आज राजधानी रायपुर में आयोजित राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव के मंच पर दी।
इस सुंदर नृत्य की शुरूआत बांसुरी की मधुर तान से हुई। झांझ की मधुर आवाजों के बीच लोककलाकारों ने नृत्य के माध्यम से बताया कि जब माता पार्वती रूठ गईं तो उन्हें मनाने के लिए किस तरह से सुंदर नृत्य संगीत की प्रस्तुति की गई और इसके चलते माता प्रसन्न हो गईं। इस परंपरागत नृत्य का प्रमुख आकर्षण ध्वज छत्र में है। सुंदर सुसज्जित ध्वजछत्र अपने खूबसूरत रंगों में जब नर्तकों के हाथों में आये तो एक शानदार जुलूस का दृश्य पैदा हुआ। ऐसा दृश्य जैसे कोई राजपरिवार किसी खास उत्सव के लिए हाथी पर सवार होकर निकला हो। इसी तरह की सजधज इस नृत्य में है। सांगली के लोककलाकार पीढ़ी दर पीढ़ी यह नृत्य कर रहे हैं। खास बात यह है कि इसमें छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी शामिल हैं। ढोल की ध्वनि से यह दृश्य और भी सजीव हो उठा। लोकनृत्य में आखरी दृश्य ऐसा है कि इतने खूबसूरत और भव्य तरीके से मनाने के बाद माता पार्वती मान गईं। लोकजीवन में भगवान शिव और माता पार्वती के संवाद और अनेक लोकश्रुतियां प्रचलित हैं जिनको आधार बनाकर महाराष्ट्र के सांगली में यह खूबसूरत धनगरी गजा नृत्य किये जाने की परंपरा है।