लाल आतंकी साया मिटाकर ही जनजातीय गौरव लौटा सकेंगे
By : hashtagu, Last Updated : November 14, 2024 | 5:19 pm
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में नक्सलियों (कम्युनिस्ट आतंकवादियों) द्वारा इसी सोमवार की रात बीजापुर जिले के जांगला थाना क्षेत्र में ग्राम पोटेनार में अपनी कथित जनअदालत लगाकर पुलिस मुखबिरी के आरोप में ग्राम माटवाड़ा के ग्रामीण माड़वी दुलारू की हत्या करने के बाद 15 नवम्बर को मनाए जाने वाले जनजाति गौरव दिवस के परिप्रेक्ष्य में जनजातीय समाज पर माओवादियों के प्रभाव पर विमर्श की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। पिछले अक्टूबर माह में भी नक्सली आतंकवादियों ने 8, 19 और 29 अक्टूबर को बस्तर के विभिन्न इलाकों में कन्हैया ताती, तिरुपति भंडारी और दिनेश पुजारी की हत्या करके दहशत फैलाने का काम किया था। और ऐसी ही कहानियाँ पिछले दो दशकों से लगातार हमें देश के जनजाति–बहुल क्षेत्रों से लगातार सुनने में आ रही हैं। विश्व की एक प्रतिष्ठित संस्था साउथ एशिया टेररिस्ट पोर्टल की वेबसाइट पर प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार 2019 से लेकर अब तक निरपराध ग्रामीणों को गोली मारने की ऐसी 49 घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनमें कुल 69 लोगों की हत्या की गई है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 31 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार वर्ष 1999 से 2019 तक 20वर्षों में देशभर में कुल 8,126 निर्दोष नागरिकों की हत्या इन माओवादियों ने की है। इसके अलावा कभी बारुदी सुरंग, तो कभी अन्धाधुन्ध फायरिंग, आदि से हताहत होकर जीवनभर के लिए पंगु हो जाने वाले लोगों की गणना तो अभी बाकी है। ऐसे ही, पिछले ढाई दशकों में अनेक विद्यालय, अस्पताल, पुल- पुलिया आदि इन माओवादियों ने ध्वस्त किये हैं। विकासपरक कार्यों में निरन्तर बाधा डालकर जनजातीय क्षेत्रों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बुनियादी ढाँचे जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रखा जा रहा है। उन्हें भारत सरकार के खिलाफ बन्दूकें उठाने पर मजबूर किया जा रहा है। अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्या के लिए विवश किया जा रहा है। शान्ति, उत्साह और मस्ती से भरा निश्चिन्त जीवन जीने वाले लोग दिन-रात अपनी और अपने परिवार की चिन्ता में लगे रहकर ‘दादालोगों’ की गुलामी को विवश हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखण्ड, बंगाल, तेलंगाना, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में तो आए दिन माओवादी घटनाओं से जुड़ी ऐसी खबरें पढ़ने में आती रहती हैं। भले ही माओवादियों के शहरी तन्त्र के कारण इन घटनाओं का बाहर उल्लेख न के बराबर रहता है।
अब कुछ सवाल ये खड़े होते हैं कि वे चाहते क्या हैं? जब नक्सली खुद को सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोधी बताकर यह दावा करते हैं कि वे सरकारी दमन से जनजातीय समाज के जल-जंगल-जमीन की रक्षा कर रहे हैं, तो फिर वे सीधे-सादे निरपराध जनजातीय समाज के ग्रामीणों की हत्या क्यों कर रहे हैं? हम सब जिन्हें प्रायः नक्सली नाम से जानते हैं, वे खुद के संगठन को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) क्यों कहते हैं? उनके पास आधुनिक हथियार कहाँ से आए? इन लोगों ने अत्याधुनिक खुफिया तंत्र कैसे विकसित कर लिए? चीन के कम्युनिस्ट तानाशाह माओ से भला इनका क्या लेना-देना? इन सवालों का जवाब हम ढूँढ़ें तो पता चलेगा कि दरअसल ये नक्सलवाद, नक्सली, भटके हुए लोग, जैसा कुछ है ही नहीं। यह एक विशुद्ध आतंकवाद है और नक्सली वास्तव में आतंकवादी हैं, जो पूरी दुनिया को कम्युनिस्ट बनाने की सनक के साथ काम कर रहे हैं और पूरी दुनिया में अबतक 10 करोड़ से भी ज्यादा लोगों की जान ले चुके हैं। माओ-प्रेरित ये आतंकवादी जनजातीय समाज की आड़ लेकर आतंक के रास्ते भारत की राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए लाल-युद्ध चला रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में पुलिस और सुरक्षाबलों के द्वारा विभिन्न आपरेशन्स में जब्त अनेक माओवादी दस्तावेज इस बात के प्रमाण हैं कि यह चीन के कम्युनिस्ट तानाशाह माओ त्से तुंग के सशस्त्र कम्युनिस्ट क्रान्ति के विचारों पर आधारित एक सुनियोजित युद्ध है और उसका एकमात्र लक्ष्य संविधान द्वारा स्थापित भारत की सत्ता को उखाड़कर उसकी जगह चीन की ही तरह कम्युनिस्ट तानाशाही को स्थापित करना है।
ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि उन्होंने वन्य क्षेत्रों को ही क्यों चुना? तो इसका उत्तर है कि कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत जनजातीय क्षेत्रों को ही इसलिए चुना क्योंकि इन माओवादियों ने भारत के विरुद्ध जब सेना बनानी शुरू की तो वह भलीभाँति यह जानते थे कि भारतीय सेना के आगे तो वह टिक नहीं पाएंगे, इसलिए उन्होंने जंगलों को अपना अड्डा बनाया। घने वनों और उनमें रहने वाले जनजातीय समाज में उन्हें इस युद्ध के लिए अपने सैन्य अड्डे स्थापित करने के साधन दिखाई पड़े, इसलिए ही उन्होंने इन दुर्गम स्थानों की शरण ली और फिर, वहाँ रह रहे जनजातीय समाज की-जीवन-पद्धति, उनकी संस्कृति, उनकी आस्था व आध्यात्मिक चेतना को अपनी दखलंदाजी से खत्म करने का कुचक्र चलाया। जाहिर है, ये जंगल माओवादियों के लिए बेहद सुरक्षित अड्डे बने भी और निश्छल, सहज-सरल जनजातीय समाज को उन्होंने आमना-सामना होने पर पुलिस व सेना के सामने अपने लिए एक ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने और शहरी (अर्बन) नक्सलियों ने मिलकर दसियों झूठ गढ़कर न केवल जनजातीय समाज को दिग्भ्रमित किया, अपितु शेष समाज में भी जनजातीय समाज को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियाँ फैलाकर ऐसा अलगाव पैदा किया जो इस्लाम और ब्रिटिशों के दौर में भी नहीं हो सका था। इन नक्सलियों ने झूठ का ऐसा मायाजाल रचा कि सबसे पहले तो जनजातीय समाज के लोगों को उनकी संस्कृति से दूर किया, उनके समक्ष नए-नए आदर्श रखे, उनमें अपनी पहचान को लेकर भ्रम पैदा किया गया। कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने ऐसे कई झूठे विमर्श स्थापित किए हैं। सबसे बड़ा झूठ तो यही है कि माओवादी आदिवासी किसानों और वंचितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। जबकि, सच यह है कि माओवादी ही जनजातीय लोगों का शोषण कर रहे हैं। उनके आतंकी लड़ाके गाँववालों से अपनी रसद वसूलते हैं। उन्हें आतंकियों को छिपाए रखने को विवश किया जाता है, और जो कोई मुखालफत करता है, वे उसकी क्रूरता से हत्या कर देते हैं। इसी तरह नक्सलियों को महिलाओं के सशक्तीकरण और उन्हें समानता का अधिकार दिलाने के लिए लड़ने वाला बताया जा रहा है, जबकि जनजातीय महिलाओं का सर्वाधिक यौन शोषण माओवादी ही करते हैं। वे अपने संगठन में, अपनी कथित सेना में जिम्मेदारियाँ निभा रही महिलाओं को भी नहीं छोड़ते। अनेक आत्मसमर्पित माओवादियों ने इन अत्याचारों पर से पर्दा उठाया है। आदिवासियों के वनाधिकार के लिए लड़ाई के दावे का सच यह है कि जब केन्द्र सरकार वनाधिकार देने हेतु ड्रोन सर्वे के माध्यम से जमीन की डिजिटल मैपिंग कर रही है, तो ये माओवादी ही उसके विरोध में मिथ्यालाप कर रहे हैं क्योंकि इस मैपिंग से भारत के विरुद्ध जंग में बस्तर को अपना मुख्य अड्डा बनाने के कम्युनिस्ट आतंकवादियों के मंसूबों पर पानी फिर जाएगा। कुल मिलाकर, हमें यह समझ लेना चाहिए कि वे कोई लोगों के लिए लड़ने के लिए नहीं आए हैं, वे अपने भारत-विरोधी मंसूबों को पूरा करने के लिए दण्डकारण्य क्षेत्र में आए हैं। यह सच इन कम्युनिस्ट आतंकवादियों के दस्तावेज़ स्वयं ही उजागर कर देते हैं। सीपीआई (एम) का डॉक्यूमेंट ‘स्ट्रैटेजी एण्ड टैक्टिक्स ऑप इंडियन रिवॉल्यूशन’ सबकुछ स्पष्ट कर देता है। यह जनजातीय समाज और किसानों के गुस्से से उपजा कोई स्वस्फूर्त आन्दोलन नहीं है। इन कम्युनिस्ट आतंकवादियों का तो संविधान और किसी तरह की संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास ही नहीं है। इसे दुर्भाग्य कहें या फिर कम्युनिस्टों के दुष्प्रचार का प्रभाव कि आज सामान्य जनमानस में इस झूठ ने गहरी पैठ बना रखी है।
जनजातीय क्षेत्रों में पैदा की जा रही चुनौतियाँ
कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने अब जनजातीय समाज पर अपनी पकड़ के कमजोर होने और सरकार द्वारा माओवाद-विरोधी अभियानों में आई तेजी से बौखलाकर कपट-युद्ध शुरू किया है। फलतः हमारे और हमारे जनजातीय बन्धुओं के समक्ष नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं। माओवादी अब यह झूठ भी फैला रहे हैं कि आदिवासी हिन्दू नहीं है। हिन्दू परम्परा का पालन करने पर लोगों को दण्ड दिया जा रहा है। इससे भारतीय समाज में भेद की एक नई रेखा के उपजने की आशंका है। इसके अलावा एक नया झूठ और स्थापित किया जा रहा है कि आदिवासी ही भारत के मूलनिवासी हैं, जो बाहरी लोगों द्वारा पीड़ित हैं। इससे भी समाज के विघटन का संकट हो सकता है। पत्थलगड़ी, पेसा, 5वीं व 6ठी अनुसूची, समान नागरिक संहिता और वनाधिकार कानून पर भ्रम फैलाया जा रहा है। माओवादियों व चर्च का गठजोड़ भी जनजातीय क्षेत्रों में एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। अपने प्रभाव के क्षेत्रों में माओवादी राजनैतिक हत्याएँ तो बढ़ा ही रहे हैं, साथ-साथ इन क्षेत्रों में वे अपना राजनैतिक नियंत्रण भी बढ़ा रहे हैं। इनके इकोसिस्टम द्वारा इन कम्युनिस्ट आतंकियों को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पीड़ित-क्रान्तिकारी बताने का प्रयास भी लगातार किया जा रहा है।
जनजातीय समाज पर प्रभाव
चीन की तरह ही आतंकी तानाशाही की स्थापना की बदनीयती के साथ इन आतंकियों ने बस्तर की स्थिति भी ऐसी कर दी है; कि अब वहाँ न व्यक्ति और न ही अभिव्यक्ति का कोई महत्व है। मुँह खोलने की सजा मौत है। निरीह जनजातीय समाज के मन में उनकी ही चुनी सरकार के प्रति भय और आतंक के भाव इस सीमा तक भर दिए गए हैं कि वे लोग आज भी खाकी वर्दी देखकर छिप जाते हैं। महानगरों में एयर-कण्डीशण्ड कमरों में बैठे कुछ अप्रकट आतंकियों (या आम बोल-चाल के अर्बन नक्सलियों) ने लगातार इसे वंचितों का सरकार के प्रति विद्रोह बताने का दुष्चक्र चलाया है। और दुर्भाग्यवश, हमारे अकादमिक संस्थान भी नक्सल आन्दोलन कहकर इसे वंचित भारतीयों की व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में ही पढ़ा रहे हैं। जबकि बस्तर में अभी चल रही माओवादी हिंसा कोई वहाँ के जनजातीय लोगों की चलाई हुई नहीं है, बल्कि उन पर थोपी हुई है। सहअस्तित्व और सामूहिकता के उच्चादर्शों के साथ जीने वाले लोगों के मन में हिंसा और क्रूरता के बीज बोए जा रहे हैं। माओवादियों ने जनजातीय समाज के जीवन को इस सीमा तक प्रभावित किया है कि वे अब आत्मविस्मृत-से होते जा रहे हैं। जनजाति संस्कृति नष्ट की जा रही है, परम्पराएँ भ्रष्ट की जा रही हैं। मनौवैज्ञानिक रूप से उनका मूल स्वभाव बदल कर उनमें पीड़ित होने का भाव और ज़िहादी मानिसकता भरी जा रही है। पहले गाँव के विषय गायता और पुजारी सुलझाते थे, किंतु अब इसके लिए संघम सदस्य बैठता है। आज हमारे जनजाति बन्धु अपने पुरखों की जगह माओ, लेनिन, मार्क्स आदि को अपना आदर्श मानने को विवश हैं। रमणीय पर्यटन योग्य क्षेत्र की पहचान अब लाल आतंक बन गया है। हिंसा और अत्याचार के वातावरण में वहाँ बचपन मर रहा है। कुल मिलाकर कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने जनजातीय समाज के जीवन को अपने उन्माद के नर्क में धकेल रखा है। ये आतंकवादी जनजातीय समाज और भारत के समक्ष नित-नई चुनौतियाँ खड़ी करते जा रहे हैं।
नक्सलमुक्त भारत और छत्तीसगढ़ के संकल्प पर हो रहा काम
लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि केंद्र और छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार हाथ-पर-हाथ धरे बैठी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की सरकार में उपमुख्यमंत्री व गृह मंत्री विजय शर्मा ने एक विजन के साथ नक्सलमुक्त छत्तीसगढ़ के संकल्प के लिए सख्त फैसले लिए हैं। एक तरफ सुरक्षा बल और पुलिस के जवान माओवाद पर निर्णायक प्रहार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश सरकार की बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी योजनाएँ नक्सल प्रभावित गाँवों में संचालित की जा रही हैं। इनमें नियद नेल्लानार, प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन), आदिवासी ग्रामीण आवास योजना, तेंदूपत्ता संग्रहण की मानक राशि में वृद्धि आदि उल्लेखनीय है। 16 फरवरी 2024 को शुरू की गई नियद नेल्लानार योजना के जरिए सुदूर नक्सल प्रभावित गाँवों में दो दर्जन से अधिक जनकल्याणकारी योजनाओं की पहुँच सुनिश्चित की जा रही है। इसके लिए 20 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जा चुका है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह वामपंथी उग्रवाद को समूल नष्ट करने को लेकर न सिर्फ गंभीर हैं बल्कि इसके लिए मोदी सरकार हर संसाधन मुहैया करा रही है। केंद्र और छत्तीसगढ़ की सरकार नक्सलवाद के खिलाफ समन्वित रणनीति बनाकर काम कर रही है। छत्तीसगढ़ में अक्टूबर माह के पहले सप्ताह में ही बड़ा एन्टी नक्सल ऑपरेशन हुआ है, जिसमें सुरक्षाबलों ने 35 माओवादियों को ढेर किया है। पिछले नौ महीनों में 194 से अधिक माओवादी मारे गए हैं, 800 से ज्यादा नक्सलियो का गिरफ्तारियां हुई हैं और 738 नक्सालयों ने आत्मसमर्पण किया है। सुरक्षाबलों ने 10 माओवादी ऐसे मारे हैं जिनका छत्तीसगढ़ के क्षेत्र में लम्बे समय से खौफ बना हुआ था। यह छत्तीसगढ़ के इतिहास में सबसे बड़ी सफलता है।
बस्तर शांति समिति की क्रांतिकारी पहल
एक तरफ केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकारों ने नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई छेड़ रखी है, वहीं दूसरी तरफ बस्तर शांति समिति ने क्रांतिकारी पहल करते हुए बस्तर के 50 नक्सल पीड़ित जनजातीय लोगों का जत्था लेकर नई दिल्ली में जाकर वामपंथी आतंकवाद के खिलाफ शंखनाद किया। नई दिल्ली जाकर नक्सल पीड़ितों ने मानवाधिकारवादियों से गुहार लगाई कि नक्सलियों के अधिकारों पर शोर मचाने वालों को जनजातियों के शांतिपूर्ण और आतंकमुक्त जीवन के अधिकारों की रक्षा की भी चिंता करनी चाहिए। इस जत्थे ने अपने इस दौरे में राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात करके अपनी आपबीती सुनाई। बस्तर शांति समिति के बैनर तले नक्सल पीड़ित आदिवासियों ने जंतर-मंतर पर धरना दिया और वामपंथी उग्रवाद की अब तक उपजाऊ जमीन रहे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाकर भी नक्सली आतंक के खिलाफ शंख फूँका। बस्तर शांति समिति की यह पहल देशभर में चर्चा का बनी और मानवाधिकार के नाम पर नक्सलियों की ढाल बनते रहने वाले मानवाधिकारवादियों के पाखंड से देश रू-ब-रू हुआ।
सुपरिणाम सामने आने लगे
इन तमाम प्रयासों के सुपरिणाम भी सामने आने लगे हैं। अभी हाल ही बस्तर के ही नारायणपुर के नक्सल प्रभावित गारपा ग्राम के वे लगभग 40 परिवार, जो नक्सलियों के भय से नारायणपुर के ही गुडरीपारा में रह रहे थे, वापस अपने गाँव रहने के लिए लौट आए हैं, जिन्हें नक्सलियों ने करीब दो दशक पहले गाँव से बेदखल करते हुए भगा दिया था। यदि यह क्रम चलता रहा तो यकीनन जनजातीय समाज का खोया स्वाभिमान लौटेगा और वह अपने गौरवशाली अतीत के साथ-साथ विकास की मुख्यधारा से भी जुड़ेगा। इससे जनजातीय समाज के प्रति व्याप्त विकृत धारणाओं का शमन भी होगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज एकजुट होकर आतंक, भय, विवशता के चंगुल से मुक्त जनजातीय समाज के साथ विकसित भारत व विकसित छत्तीसगढ़ की परिकल्पना को साकार भी करेगा। यही जनजाति गौरव दिवस की सार्थकता होगी।
अनिल पुरोहित, पत्रकार
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