नई दिल्ली, 30 दिसंबर (आईएएनएस)। एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि भारत में दुर्लभ बीमारियों (Rare Diseases) से प्रभावी ढंग से निपटने में जागरूकता की कमी और अपर्याप्त निदान (डायग्नोसिस) बाधा पैदा करते है।
नवंबर 2023 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए चार जेनेरिक दवाओं की बिक्री को मंजूरी दी थी। यह भारत में दुर्लभ बीमारियों के खिलाफ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर थी। इन स्वीकृत स्वदेशी उत्पादों के साथ-साथ अभी तक स्वीकृत होने वाले अन्य उत्पाद दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित रोगियों की सहायता करेंगे।
डेटा और एनालिटिक्स कंपनी ग्लोबलडेटा की रिपोर्ट से पता चला है कि कम जागरूकता और निदान (डायग्नोसिस) चिंता का विषय है।
विल्सन रोग, गौचर रोग, टायरोसिनेमिया टाइप 1 और ड्रेवेट-लेनोक्स गैस्टॉट सिंड्रोम के इलाज के लिए चार स्वीकृत दवाओं का उपयोग किया जाता है।
पहले, इन उपचारों के लिए भारत अन्य देशों पर निर्भर था, और अकेले गौचर रोग के वार्षिक उपचार के लिए 18-36 मिलियन रुपये की लागत आती थी।
इस मंजूरी के साथ दुर्लभ बीमारियों वाले मरीज अब 0.3-0.6 मिलियन रुपये (यूएस 0.0037- 0.0073 मिलियन डॉलर) की काफी कम लागत पर चिकित्सा प्राप्त कर सकते हैं जो आयातित दवाओं से 100 गुना कम है।
अगले कुछ महीनों में स्वास्थ्य मंत्रालय हाइपरअमोनमिया और फेनिलकेटोनुरिया जैसी अतिरिक्त दुर्लभ बीमारियों के लिए भी दवाएं जारी करेगा।
ग्लोबलडेटा के फार्मा विश्लेषक जीतेंद्र कंचरला ने एक बयान में कहा, ‘दुर्लभ बीमारियां जनसंख्या में बहुत कम संख्या में व्यक्तियों को प्रभावित करती हैं। भारत की विशाल आबादी में दुर्लभ बीमारियों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है और दुर्लभ बीमारियों के डायग्नोसिस और उपचार को लेकर एक संघर्ष जारी रहता है।”
2021 में भारत सरकार ने दुर्लभ बीमारियों से लड़ने में खामियों पर काम करने के लिए राष्ट्रीय नीति (एनपीआरडी-2021) को आगे बढ़ाया। इसके एक भाग के रूप में दुर्लभ बीमारियों के निदान (डायग्नोसिस) और उपचार के लिए आठ केंद्र स्थापित किए गए हैं, साथ ही अतिरिक्त परीक्षण केंद्र और उपचार करा रहे रोगियों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की गई है।
कांचरला ने कहा, “इन पहलों के बावजूद भारत में दुर्लभ बीमारियां एक गंभीर स्वास्थ्य देखभाल मुद्दा बनी हुई हैं।”
ग्लोबलडेटास फार्मास्युटिकल इंटेलिजेंस सेंटर के अनुसार, भारत में विल्सन रोग के 10-वर्षीय प्रचलित मामलों की संख्या 0.36 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर (एजीआर) से 2023 में 53,988 से बढ़कर 2030 में 55,150 हो जाने की उम्मीद है।
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, दक्षिण कोरिया, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे प्रमुख बाजारों में चीन के बाद भारत में दूसरे सबसे अधिक मामले हैं।
जानकारी की कमी, सीमित शोध और स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों और जनता के बीच अपर्याप्त जागरूकता ने इस दुर्लभ बीमारियाें महत्वपूर्ण चुनौतियां पैदा करती हैं।
सरकार को लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने और स्वास्थ्य पेशेवरों को लक्षणों, निदान और उपचार के बारे में शिक्षित करने के लिए कदम उठाना चाहिए। इसे कुशल सोशल मीडिया और डिजिटल अभियानों के माध्यम से हासिल किया जा सकता है।
नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ कैंसर डायबिटीज कार्डियोवास्कुलर डिजीज एंड स्ट्रोक (एनपीसीडीसीएस) द्वारा नॉन अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज और नॉन अल्कोहलिक स्टीटोहेपेटाइटिस के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए लिवअलर्ट का हालिया लॉन्च रोग जागरूकता बढ़ाने के लिए कुशल अभियान का एक अच्छा उदाहरण है।
कांचरला ने कहा, “भारत में दुर्लभ बीमारी के बारे में जागरूकता में सुधार करना एक बहुआयामी चुनौती है जिसके लिए सरकार, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों, रोगी वकालत समूहों और मीडिया सहित विभिन्न हितधारकों के सामूूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। विशेष रूप से, अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों से सीखने के लिए अनुसंधान संस्थानों, फार्मास्युटिकल कंपनियों और वैश्विक दुर्लभ रोग नेटवर्क के साथ सहयोग आवश्यक है।”
उन्होंने कहा,” बड़ी फार्मा कंपनियां अपने संसाधनों और प्रभाव के आधार पर दुर्लभ रोग जागरूकता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अतिरिक्त, विशेष रूप से ग्रामीण और कम सुविधा वाले क्षेत्रों में नैदानिक सुविधाओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा, ताकि दुर्लभ बीमारियों का शीघ्र पता लगाया जा सके।”