धर्मांतरण पर भी करें ‘सर्जिकल स्ट्राइक’
By : prafullpare, Last Updated : April 15, 2023 | 11:26 am
भारत में रहने वाली जनजातियों के धर्मान्तरण (conversion) का मुद्दा अब एक बार फिर गरमाने वाला है और इसका आगाज़ होगा छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) की धरती से। जनजाति सुरक्षा मंच पूरे देश में जनजातियों के धर्मान्तरण के खिलाफ केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए सोलह अप्रैल को बड़ा आंदोलन करने जा रहा है.
हम बार बार सुनते हैं कि आदिवासी इलाकों में धर्मान्तरण हो रहा है. जैसे ही धर्मान्तरण की बात होती है तत्काल एक सवाल पूरी ताकत के साथ झोंक दिया जाता है कि जनजाति के लोग क्या हिन्दू होते हैं? संविधान में तो ऐसा नहीं लिखा है फिर ये हिंदुत्व वादी लोग जनजातियों के हिन्दू होने का दावा क्यों करते हैं? जनजातीय समाज की मर्जी वह अपनी आस्था किसी भी मजहब पर रखे, इसमें आपत्ति क्या है। दरअसल मामला केवल धर्मांतरण तक सीमित नहीं है इसके पीछे जो तत्व छिपा है वह है जनजातीय समाज को मिलने वाला आरक्षण और उससे होने वाला लाभ और इसकी आड़ में हो रहे धर्मान्तरण के गोरखधंधे के कारण जनजातीय समाज अपने अधिकारों से वंचित हो रहा है। जिसके चलते अब जनजातीय समाज ने भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ने और केंद्र सरकार से अपनी मांग मनवाने के लिए संघर्ष का मार्ग चुन लिया है।
मामला है क्या
आजाद भारत में जब संविधान लागू हुआ तब संविधान निर्माताओं ने जाति व्यवस्था के कारण पिछड़ेपन का शिकार रही जातियों की एक सूची बनाई और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया चूँकि यह अनुसूचित जातियां हिंदू सनातन परमपराओं को मानने वाली थी इसलिए संविधान के अनुच्छेद 341 में यह स्पष्ट किया गया कि अनुसूचित जाति का कोई भी व्यक्ति हिन्दू धर्म को छोड़कर किसी अन्य विदेशी धर्म को मानता है तो उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा, परन्तु अनुसूचित जनजातियों के मामले में संविधान निर्माताओं ने ऐसा कोई स्पष्ट प्रतिबंध नहीं लगाया। संविधान ने जनजातीय समाज को अपनी परम्परागत आस्था और संस्कृति को सुरक्षित तथा संरक्षित करने के लिए आरक्षण का प्रावधान किया।
जनजातियों के लिए आरक्षण के अतिरिक्त अनुसूचित क्षेत्र में 5 वीं और 6 वीं अनुसूची के जरिये विशेष प्रावधान भी किए ताकि उनकी परम्पराओं की रक्षा हो सके. इसके बाद समय समय पर जनजातियों के लिए पेसा कानून और वनाधिकार कानून भी संविधान में समाहित किए गए। कुल मिलाकर जनजातीय समाज को उनकी जीवन पद्धति, उपासना पद्धति, उनके वन, उनकी भूमि, उनके नृत्य, भाषा और वेशभूषा इत्यादि को संरक्षित करने का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 342 में स्पष्ट है।
विदेशी धर्मों ने बनाया निशाना
प्राचीनकाल में भारत के वन क्षेत्रों में जनजातीय राजा भी राज्य करते थे। जिनका समूचे वन क्षेत्र पर अधिकार था। गैर जनजातीय राजा भी इनकी सत्ता को मान्यता और महत्व दोनों ही दिया करते थे और यह स्थिति मुगलकाल तक बनी रही.. जब अंग्रेज आए तो उन्होंने 1931 में जनगणना की और पहली बार जनजातियों को आदिवासी बताया गया। इसके बाद उन्होंने वनों का सरकारीकरण शुरू कर दिया प्राकृतिक संसाधनों का शोषण होने लगा जनजातियां जबरन विस्थापित की जाने लगीं.. जो जनजातियां जंगलों की मालिक थी उन्हें अवैध कब्जाधारी कहा जाने लगा।
यह सिलसिला आजादी तक बदस्तूर जारी रहा और आजादी के बाद सन 50 में जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किये गए लेकिन कुछ वर्षों बाद जनजातियां एक बार फिर षड्यंत्रों के केंद्र में हैं और सड़कों पर इन्साफ के लिए उतर रही हैं. देश की सात सौ से अधिक जनजातियां आजादी के बाद से ही ईसाई और इस्लाम धर्मावलम्बियों के निशाने पर हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक जनजातियों की आबादी आठ करोड़ से भी अधिक है।
एक जानकारी के मुताबिक़ इनमें से लगभग 80 लाख लोग ईसाई और करीब 12 लाख लोग इस्लाम अपना चुके हैं। ईसाई धर्म अपनाने वाली अधिकांश जनजाति उत्तर पूर्व के राज्यों की है और लगभग 20 लाख छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ओडिशा की है. यह आंकड़ा भी 22 साल पुराना है, हकीकत में यह संख्या इससे कहीं आगे निकल गई है. जनजातियों की पंचायतों से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद तक में यह बात उठाई गई कि जनजातिय संस्कृति, आस्था और परंपरा को त्यागकर ईसाई या मुसलमान बन चुके लोग आरक्षण में व्याप्त कमियों का फायदा उठाकर मूल जनजातियों का अधिकार छीन रहे हैं।
झारखण्ड की उरांव जनजाति से आने वाले डॉक्टर कार्तिक उरांव जो लोकसभा के सदस्य भी थे उन्होंने जनजातियों के धर्मान्तरण का मामला अनेकों बार लोकसभा में उठाया और उनके ही प्रयासों के बाद इस मामले पर एक संयुक्त संसदीय समिति ( जे पी सी ) का गठन किया गया. इसी जेपीसी की अनुशंसा पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन ) विधेयक 1969 में लोकसभा में पेश किया गया। इस जेपीसी में लोकसभा के 22 और राज्यसभा के 11 सदस्यों ने लगभग 22 बैठकों के बाद अपनी रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत की जिसमें यह सिफारिश की गई कि जनजाति का कोई भी व्यक्ति जिसने जनजाति के आदिमत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया है और ईसाई या इस्लाम मजहब ग्रहण कर लिया है तो वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जायेगा। विडम्बना देखिये कि इस सिफारिश को सरकार के जनजाति मंत्रालय ने मानने से इंकार कर दिया और इसे परामर्श के लिए कानून मंत्रालय, गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के पास भेज दिया।
अब सवाल यह उठता है कि परामर्श के लिए कानून और गृह मंत्रालय को शामिल करना तो समझ में आता है लेकिन जनजातियों के धर्मान्तरण के मसले पर विदेश मंत्रालय के परामर्श की क्या जरुरत?? इसका मतलब तब समझ में आया जब देश के पचास सांसदों ने ईसाईयों के समर्थन में एक स्मरण पत्र तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को सौंपा और आग्रह किया कि वे इस सिफारिश को स्वीकार ना करें।
इसके जवाब में समिति के सदस्य कार्तिक उरांव ने 10 नवम्बर 1970 को लोकसभा और राज्य सभा के 348 सदस्यों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन श्रीमती इंदिरा गाँधी को सौंपा, जिसमें मांग की गई थी कि जेपीसी की सिफारिशों को स्वीकार किया जाए. बात यहीं तक नहीं रुकी 17 नवंबर 1970 को लोकसभा में सरकार की तरफ से एक संशोधन पेश किया गया कि विधेयक में से समिति की उस सिफारिश को हटा लिया जाय। इसी बीच देश की कई चर्चों ने भी इस संशोधन का विरोध किया और कहा कि इसके पारित होने से ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में बढ़ा आएगी मेघालय की विधानसभा में तो बाकायदा एक विरोध प्रस्ताव पारित किया गया।
संसद में इस मांमले पर 24 नवम्बर 1970 को जमकर बहस हुई और सरकार ने यह आश्वासन देते हुए बहस को स्थगित कर दिया कि सत्र के अंत में इस विषय पर फिर से चर्चा होगी लेकिन 27 दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग हो गई। अगर उसी दिन चर्चा के बाद जेपीसी की सिफारिश मंजूर हो जाती तो धर्मान्तरित लोगों का जनजातीय स्टेटस ख़त्म हो जाता।
एक दिलचस्प बात ये भी है कि अंग्रेजी हुकूमत के दौर में 1921 में कराइ गई जनगणना में उस समय के जनगणना आयुक्त ने कहा था कि अगली जनगणना जब हो तो सभी प्रकृति पूजकों को हिन्दू लिखा जाए उसके बाद 1931 में जनगणना आयुक्त रहे जे एच हटन ने भी कहा कि हिन्दू धर्म और ट्राइबल को अलग अलग नहीं देखा जा सकता ये दोनों एक ही हैं।
बहरहाल, मसला हाल फ़िलहाल जनजातियों के धर्म पर बहस करने का नहीं है भारत की संविधान सभा में संविधान निर्माता बाबा साहेब आम्बेडकर ने भी साफ़ कहा कि भारत में सभी आदिवासी हैं किसी एक वर्ग को को आदिवासी का नाम देना उचित नहीं है इसीलिए इस वर्ग की पहचान अनुसूचित जनजाति वर्ग के रूप में की गई और उसे संरक्षित रखने के लिए आरक्षण सहित और भी कई प्रावधान किये गए.. बीते पांच छह दशक से जनजातियों को धर्मान्तरित किया जा रहा है और उन्हें मिलने वाले लाभ का भरपूर दोहन किया जा रहा है।
जिसके चलते अब जनजाति समाज दूसरा धर्म अपना चुके लोगों की डिलिस्टिंग की मांग कर रहा है। वैसे भी यह मांग जायज ही है कि जनजातीय परम्पराओं का त्याग कर चुके लोगों को आरक्षण का लाभ क्यों दिया चाहिए.. अगर जनजातीय समाज हिन्दू नहीं है तो वह ईसाई और मुसलमान भी नहीं है सरकार को चाहिए कि वह संविधान की मंशा के अनुसार ही जनजातियों को जनजाति बनाकर ही रखे उन्हें उनकी परंपरा और संस्कृति के हिसाब से जीवन यापन करने दे और मत या आस्था के नाम पर हो रहे धर्मान्तरण के गोरखधंधे पर प्रतिबन्ध लगाए। देश की संसद में भरोसा दिया जाए कि जनजातियों की संस्कृति और परम्पराओं पर कोई धार्मिक ताकतें हमला नहीं करेंगी।