लेखक (तापेश झा)
डेस्क। यह बीते दिनों की बात है, जब 1972 में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम (Wild animal protection act) लागू हो चुका था। पर उसकी हमें परवाह नहीं थी। क्योंकि उसके बारे में हमें कोई मालूमात भी नहीं थी। वैसे हालात आज 2024 में भी कोई बहुत ज्यादा अलग नहीं है। आज जो मुझे जानते हैं वह शायद इस बात को लेकर मेरी शिकायत करें या मुझसे नाराज हो कि फारेस्ट अफसर होते हुए और वन्य प्राणी अधिनियम के बारे में जानते हुए भी हरकत मैंने क्यों की। तो उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह बात 1974-75 की है। जगह का नाम डोगरगढ़ और उस वक्त मेरी उम्र 7-8 साल के लगभग है। उन दिनों ठंड से गोरसी के पास बैठ कर नानी से सुनी हुई कहानियां अक्सर राजा और उनके शिकार की बहादुरी से सराबोर होती थी, जो सबसे ज्यादा सिहरन पैदा करती थी, वह शेर के शिकार (Lion hunting) की कहानी होती थी।
कहानी सुनते-सुनते और मां के मुंह से अपने लिए हमेश राजा बेटा, राजा बेटा सुनते-सुनते कब आपने आप को नानी की कहानियों के राजा किरदारों को मैं खुद में समझने लगा पता नहीं चला। वैसे अपने कर्मचारियों से तारीफ सुनकर अपने आप को वैसा ही महान समझने की गलती गाहे-बगाहे आज भी हो ही जाता है।
वैसे भी मैं स्कूल में रोज-रोज होमवर्क अधूरा हो जाने के कारण द्रोण गुरु जी की डांट खा-खा कर ऊब चुका था। स्कूल में मुझे सबको अपनी दूसरी ताकत का एहसास दिलाना जरुरी था। नानी की कहानियों में कभी यह लाइन भी आती थी : भय बिन होए न प्रीत। किसी भी तरह से एक शेर का शिकार करना अब जरुरी हो चला था।
पता नहीं क्यों मुझे समझ नहीं आता था कि जब भी मैं अपनी इस इच्छा के बारे में बताता तो सारे लोग हंस पड़ते। चाहे वह मौसी हो, चाहे वह मामा, चाहे बड़ा भाई या और कोई घर के बुजुर्ग। साथ के बच्चों से मैं यह बात शेयर नहीं करना चाहता था क्योंकि आखिर वह सब बच्चे थे। यह बात और है कि मेरी उम्र सात-आठ वर्ष की थी। पर मैं, अब तक राजा बन चुका था और इस बात का मुझे विश्वास हो चला था कि उनकी किस्मत में सिर्फ होमवर्क करके गुरुजी से शाबशी लेने का ही मुकाम रह गया था।
मैंने ठान लिया कि एक दिन बिना किसी को बताए शेर का शिकार करके उसकी खाल में भूसा भर कर, जैसा की नानी की कहानियों में शुमार होता था। उसे डोंगरगढ़ के गोल बाजार में रखकर ही लोगों को विश्वास दिलाऊंगा और तब वह सब देखेंगे और तब मैं उन पर हसूंगा।
इत्तफाकन उन्हीं दिनों में एक मुनादी सुनाई दी, जो लोकल रेंज अफसर के आदेश से थी। यह ताकीद की गई थी कि डोगरगढ़ के बड़ी बमलाई के पहाड़ में एक शेर घूम रहा है और वह रोज रात में छोटी बमलाई के दर्शन करके वापस पहाड़ की गुफा में घुस जाता है। न सिर्फ उसकी धार्मिक भावना के सम्ममान के चलते बल्कि उसके शेर होने की ताकत का अहसास करते हुए डोंगरगढ़ के नागरिकों को आगाह किया गया था कि वह बड़ी बमलाई की पहाड़ी के जंगलों में जाने से बचें।
अब हालात यह थे कि रोज शाम होते ही रेलवे लाइन के उस पार कोई नहीं जाता था और जिसे भी जाना होता था, वह टोलियों में जाता और छोटी बमलाई से दर्शन करके लौट जाता।
लोगों का डर देखकर बदहवासी देखकर मुझे मन ही मन बड़ा मजा आ रहा था क्योंकि मुझे मालूम था जिस दिन मैं शेर को शिकार करके गोल बाजार में पटक दूंगा, उसे दिन लोगों में डर मेरे लिए जय जयकार में बदल जाएगा। तो जितना ज्यादा भय उतनी ही बड़ी जय जयकार। मुझे बेसब्री से उस दिन का इंतजार होने लगा पर नानी की कहानियों में रामायण की चौपाई भी शामिल रहती थी और किसी चौपाई में लिखा था कि सकल पदारथ है जग माही, करमहीन नर पावत नाही। तो प्रयास करने की बाध्यता मेरी अलाली के साथ कुश्ती लड़ने लगी और उसकी जीत के साथ ही मैं शिकार की तैयारी में जुट गया।
घर की दीवारों पर ठोकी गई छोटी बड़ी कीलें निकाल ली गई। घर के पुराने कमरे के बेकार पड़े सामान में से बिजली के तार निकाले गए और उन्हें गूंथकर हंटर का रुप दिया गया। जिससे फंदा भी बनाया जा सकता था। उसे कमर में बेल्ट की तरह लपेट लिया, जो की ढीली हाफ पेंट को संभालने में भी मददगार हो गई।
पास के रेलवे स्टेशन में पटरी पर इन कीलों को रखकर मालगाडि़यों की आवाजाही के जरिए इनको छोटे-बड़े चाकूओं में बदल दिया गया। कमर में बंधी हंटर बेल्ट के बीच में चाकुओं को फंसा लिया गया। तैयारी पूरी हो चुकी थी। प्लान बड़ा सहज थ। सीधा-साधा। मंदिर के पीछे गुफा में सोए हुए शेर को पत्थर मारकर बाहर लाना था। गुफा में कमर में बंधी बेल्ट का फंदा बनाकर उसके निकलते ही उसकी गर्दन को फंसा लेना था। छोटे-बड़े चाकुओं से बाकी का काम तमाम किया जाना था। सारा मामला कोई 15 मिनट से ज्यादा का नहीं लग रहा था।
रेलवे लाइन के उस पार ही मंदिरों वाली पहाड़ी थी। सुबह सवेरे कोई था भी नहीं इसलिए बड़े आराम से मालगाड़ी के डिब्बों के नीचे बुलक कर छोटी बमलाई मंदिर के पीछे से बड़ी बमलाई के लिए जाने वाली जंगली पगडंडी पर चढ़ाई शुरू हुई।
थोड़ी देर की चढ़ाई के बाद एक गुफा दिखाई दी। मन में पहले से ही तय था कि शेर को इसी गुफा में होना था, जहां उसे मेरे हाथों मरना था। वैसे भी ज्यादा मेहनत करने का दूसरी गुफाओं को ढूंढने का मेरा कोई इरादा भी नहीं हो रहा था।
मैं घूम कर गुफा के ऊपरी मुहाने की छत पर पहुंच कमर से हंटरनुमा बेल्ट को निकाल एक फंदा जैसा कुछ बनाया। उसके बाद ऊपर से झांक कर इस फंदे को नीचे मैंने लटकाया। चाकुओं को सेट को बाजू में रखकर पूरी तैयारी थी : फेंक कर के फंदे में फंसे हुए शेर को ढेर करने की।
पर फंदा लटकते ही जो मंजर नजर आया मेरे पसीने छूटने लगे और पेंट जो वैसे भी साइज में ढीली थी डर के मारे और ढीली होने लगी। नीचे बहुत भयावह, विशालकाय, दुर्दांत, डरावना, खतरनाक गर्दन हिलाता लाल रंग गिरगिट मौजूद था।
उसके रंग ढंग से लग रहा था मानो वह बहुत देर से मेरा इंतजार कर रहा था। और उसके शिकार के निशाने पर बहुत दिनों से मैं ही था। मुझे समझ में आ गया कि शेर का हल्ला तो सिर्फ बहाना था। शायद यह गिरगिट के प्लान का हिस्सा था, मेरा शिकार करने का।
मेरी सारी तैयारी शेर के शिकार के लिए थी। मेरी सारी प्लानिंग शेर को फंसा कर उसे मारने की थी। और उसके लिए सारे जुगाड़ मैं करके आया था। पर गिरगिट के लिए मेरी कोई तैयारी नहीं थी। अब शायद मैं गिरगिट का शिकार था।
मेरे पसीने छूटने लगे हाथों से फंदा छूट कर नीचे गिर गया । चाकुओं पर नजर डालने की हिम्मत नहीं रही। किसी तरह सरकती पेंट को ऊपर खींचता हुआ बिजली की तेजी से कब मैं घर वापस आकर बिस्तर में चादर मुंह में डालकर सो गया, लेट गया पता ही नहीं लगा। पता तो था सिर्फ इतना की बाजू में मां सोई हुई थी और उससे चिपककर जो सुरक्षा का एहसास मिला तब जाकर जान में जान आई।
दूसरे दिन सुबह उठकर स्कूल का सारा होमवर्क किया और द्रोण गुरु जी के सामने बिना किसी बहाने के सारे होमवर्क को चेक कर कर शाबशी से थोड़ा आत्म सम्मान लौटा।
कल से वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जाएगा इसके लिए फारेस्ट के कर्मचारियों की तरफ से अच्छे निबंध लिखने वाले को इनाम दिया जाएगा। सभी को किसी न किसी वन्य प्राणी पर निबंध लिखकर लाना है, द्रोण गुरूजी ने सभी बच्चों को लगभग धमकाते हुए से कहा।
दूसरे दिन सभी निबंध लिखकर आए। निबंधों को जांचने के लिए फारेस्ट साहब और गार्ड साहब भी आए। उन्होंने सभी निबंधों को देखा परखा और नतीजा बताने के लिए पहले एक भाषण सा दिया।
इसलिए इस साल का वन्य प्राणी निबंध का प्रथम पुरस्कार गिरगिट पर लिखे निबंध को दिया जाता है। इनाम लेकर रेंजर जनाब को सलाम करते हुए भी मेरी पेंट अब नहीं सरक रही थी। कल की छोटी कील से बने हुए पिन जैसे चाकू से उसे मैंने टाइट जो कर रखा था। मैं जो कुछ देर पहले तक गिरगिट का शर्मसार हुआ शिकार सा था, अब क्लास का हीरों बन चुका था।
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