विधानसभा का चुनाव (Assembly Elections) अब माथे पर आ गया है। भाजपा व सत्ताधारी कांग्रेस सहित आम आदमी पार्टी और जोगी कांग्रेस जैसे दल भी राज्य में सक्रिय हो गए हैं। लेकिन हम बात करेंगे, भाजपा और कांग्रेस की। क्योंकि मुकाबला इन दोनों के बीच ही होना है। इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं कि पूरा चुनाव और उसके मुद्दे प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) के इर्द गिर्द ही केंद्रित होंगे।
बघेल विगत पांच वर्षों से सत्ता में हैं और उन्होंने राज्य की ग्रामीण जनता के बीच अपनी पैठ बनाने और पूरी कांग्रेस पार्टी में अपना रुतबा कायम करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। इसलिए ये कहा जा सकता है कि भाजपा और सत्ता के बीच एक चट्टान की तरह अगर कोई खड़ा है तो वह कांग्रेस नहीं बल्कि भूपेश बघेल हैं। तो अब फिर से आते हैं, चुनावी राजनीति पर कि आखिर भाजपा इस चट्टान को गिराने के लिए कर क्या रही है।
प्रदेश में अपनी करारी हार के बाद भाजपा ने संगठन में भारी फेरबदल किए। शुरू के दिनों में इस बदलाव को केवल एक प्रयोग के तौर पर देखा गया। लेकिन चुनाव आते आते भाजपा ने अपने संगठन का ढांचा तैयार कर लिया है। साथ ही यह भी तय हो गया है कि वह किसी चेहरे को आगे नहीं करेगी। पार्टी का नेतृत्व प्रदेश अध्यक्ष सांसद अरुण साव कर रहे हैं और राज्य का प्रभार भाजपा के कर्रे नेता ओम माथुर के पास है। बस यूं समझ लीजिये, सेना सज गई है युद्ध के लिए रथ भी तैयार हैं। तलाश है तो उन रथी और महारथियों की जो युद्ध के मैदान में उतारे जाएंगे।
साधारण अर्थों में कहें तो भाजपा के भीतर प्रत्याशियों के चयन को लेकर भारी द्वन्द की स्थिति बनी हुई है। इन सबके बीच एक बुनियादी बात भाजपा को बहुत अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि पिछले चुनाव में मिली करारी हार का बीज उसके भीतर से ही प्रस्फुटित हुआ था। खुद को कार्यकर्ताओं की पार्टी कहने वाली भाजपा को अपने कार्यकर्ताओं का मन बहुत बारीकी से पढ़ना होगा। यदि इसमें तनिक भी चूक हुई तो सत्ता से नाराजगी का उसे थोड़ा बहुत लाभ तो मिल जायेगा। लेकिन वह सत्ता तक नहीं पहुंच पायेगी। चूँकि उसने कोई चेहरा आगे ना करने का निर्णय लिया है तो जीत का पूरा दारोमदार केवल कार्यकर्ताओं के कन्धों पर होगा और ऐसे में कोई भी सूरमा उसे जरा भी बोझ लगा तो समझो गई भैंस पानी में।
अब सवाल फिर वही खड़ा होता है कि आखिर कार्यकर्त्ता चाहते क्या हैं तो इसका बहुत सीधा जवाब है कि कार्यकर्त्ता पार्टी को नए चेहरों के साथ नए कलेवर में देखना चाहते हैं। पूरे देश में अगर भाजपा बदल रही है तो यहां बदलती हुई क्यों नहीं दिख रही?। अध्यक्ष बदलने से प्रभारी बदलने से क्या पार्टी बदल जायेगी?। दरअसल, असली बदलाव भाजपा को अपने कार्यकर्ताओं को दिखाना होगा और ये बड़ी चुनौती भाजपा के सामने मुंह बाए खड़ी है।
पंद्रह वर्षों में एक पूरी पीढ़ी बदल जाती है। इसलिए इस सत्य को अनदेखा करना भी भाजपा के हित में नहीं होगा। कार्यकर्त्ता नहीं चाहते कि पंद्रह साल तक लगातार सत्ता में रहने वाले वही चेहरे इस बार भी पार्टी के रथ पर सवार होकर अपनी जंग लगी तलवार युद्ध के मैदान में लहराएं। भाजपा के भीतरखाने में नए और पुराने चेहरों को लेकर खासी हलचल मची हुई है। पुराने हटने को तैयार नहीं हैं और नए उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं।
इन्ही सब बातों के चलते बीते चार सालों में भाजपा ने कोई ऐसा बड़ा आंदोलन नहीं किया। जिसकी पूरे राज्य में चर्चा हो, जितने उपचुनाव हुए पार्टी सबमें हारी और ठीक से हारी। पार्टी के भीतर बैठकों का सिलसिला तो चल रहा है लेकिन उससे हासिल क्या हो रहा है?। जब भाजपा में कड़क छवि रखने वाले ओम माथुर को प्रभार सौंपा गया तो लगा कि कुछ बड़ा होगा लेकिन ओम माथुर के ही लगातार बदलते बयानों ने पार्टी में खलबली मचा दी है।
पहले उन्होंने खुद कहा कि इस चुनाव में सत्तर फीसदी नए चेहरे होंगे और अब वही माथुर कह रहे हैं कि नहीं,पार्टी तीस से चालीस फ़ीसदी नए लोगों को आगे करेगी। भाजपा प्रभारी के इस बयान से वे मुरझाये चेहरे फिर खिल उठे हैं जिन्हे यकीन करवाया गया था कि तुम्हारी लीला बस अब ख़त्म, अब वे फिर से सक्रिय हो गए हैं। कोई होली मिलन के बहाने तो कोई रंग पंचमी के बहाने अपनी शक्ति संगठन को दिखा रहा है। पार्टी चुनाव मैदान में किसे उतारेगी कितने नए और पुराने चेहरे होंगे। ये सब तो हाल फिलहाल का विषय ही नहीं होना चाहिए।
प्रदेश की भूपेश सरकार में करोड़ों का कोयला घोटाला उजागर हुआ, मुख्यमंत्री के करीबी नेता और अफसर जेल में हैं और इतने बड़े मामले पर भाजपा वैसी हमलावर नहीं है। जैसा उसे होना चाहिए था, उल्टा भूपेश बघेल और उनके समर्थक केंद्र और केंद्रीय एजेंसियों पर हमलावर हैं।
चुनाव जीतने के लिए सत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा करना पड़ता है। धारदार आंदोलन करने होते हैं। अगर भाजपा को लगता है कि चेहरे बदलने मात्र से वह चुनाव जीत जायेगी तो ऐसा होने वाला नहीं है। कांग्रेस के दर्जनों विधायकों ने बीते चुनाव में बीस हजार से अधिक मतों से जीत हासिल की है। केवल चेहरा बदलने से क्या इतने लम्बे लम्बे गड्ढे पट जाएंगे ?।
भाजपा के शीर्ष संगठन को सब पता है, इसके बावजूद वह अपने कार्यकर्ताओं के बीच अपना “लाइन ऑफ़ एक्शन” स्थापित नहीं कर पा रहा है। कुल मिलाकर राज्य में सत्ता तक पहुंचने के लिए भाजपा को कुछ तूफानी करना होगा। क्योंकि इस ढर्रे पर चले तो सफलता संदिग्ध ही समझो। बहरहाल, भाजपा अपने प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव की अगुआई में प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ राज्य को न दिए जाने के विरोध में विधानसभा घेरने जा रही है, आने वाले वक्त में उसे ऐसे और आंदोलन राज्य में छेड़ने होंगे।
जिस दिन से भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने हैं, उसी दिन से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर रहे हैं। कभी उन्होंने मोदी जी को आइना भेजा तो कभी जीएसटी के बकाया को लेकर जमकर कोसा, लेकिन पिछले दो महीनों में उनकी प्रधानमंत्री से लगातार दो बार हुई लम्बी मुलाक़ात को लेकर चर्चाओं का बाजार गरम है। इन दो महीनों में केंद्रीय एजेंसी इडी ने भी प्रदेश में ताबड़तोड़ कार्रवाई की। भूपेश के राजनीतिक सहयोगियों और उनके सचिवालय की अधिकारी तक को गिरफ्तार किया। इस कार्रवाई को भूपेश बदले की राजनीति बता चुके हैं और कांग्रेस ने तो केंद्रीय एजेंसियों के खिलाफ बाकायदा मोर्चा खोल दिया है।
चर्चा है कि आखिर भूपेश बघेल को प्रधानमंत्री मोदी इतनी जल्दी समय कैसे दे देते हैं और उनसे मुलाकात के दौरान उनके फाग गीत की तारीफ़ भी करते हैं। इसका एक मतलब यह निकला जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी भी शायद यह समझ गए हैं कि भूपेश के साथ उनकी पार्टी का मुकाबला आसान नहीं है। दूसरी तरफ केंद्रीय जांच एजेंसियों की लगातार कार्रवाई से भूपेश भी राहत पाना चाहते हों। खैर, इन दोनों के बीच क्या संवाद हुआ ये तो वही जानते हैं लेकिन लोग तो कह रहे हैं कि बर्फ पिघल रही है।
दिल्ली दौरे से लौटे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने विमानतल पर यह कहकर अपनी ही पार्टी में सनसनी फैला दी कि आने वाले समय में प्रदेश कांग्रेस में बड़ी सर्जरी हो सकती है। अब ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि जिलों से लेकर प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष पद में भी बदलाव किया जा सकता है।
सरगुजा के छत्रप टीएस सिंहदेव और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मोहन मरकाम के साथ भूपेश के संबंध सामान्य नहीं रहे। बाबा के साथ उनका विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया है और अब मोहन मरकाम के साथ भी उनकी खटपट के किस्से आम हो चले हैं। वहीं भूपेश ने सरगुजा के कांग्रेस नेता और अपने सहयोगी मंत्री अमरजीत भगत को और अधिक जिम्मेदारी देने की सम्भावना जताकर इन आशंकाओं को बल दे दिया है।
कहा जा रहा है कि अमरजीत भगत प्रदेश कांग्रेस के मुखिया बनाये जा सकते हैं। अगर ऐसा करने में भूपेश सफल हुए तो सत्ता के साथ संगठन पर भी उनका ही कब्जा हो जाएगा और चुनाव के समय खासकर टिकट बंटवारे के वक्त वे सर्वेसर्वा की भूमिका में होंगे। इस कल्पना से ही पार्टी में उनके विरोधी सकते में आ गए हैं। टीएस बाबा ने तो इस पर अपना विरोध भी दर्ज करा दिया है।
इस खबर ने मोहन मरकाम को इतना हिला दिया कि उन्होंने विधानसभा में अपनी ही सरकार पर आरोप जड़ दिए। कुल मिलकर यह तो साफ़ है कि आने वाले चुनाव में रणनीति बनाने से लेकर टिकट बंटवारे तक सब कुछ भूपेश बघेल की सहमारी से होगा।