तोप के गोले और गोलियों की तड़तड़ाहट के सामने डटी घुड़सवार सेना, जिनके पराक्रम ने दुनिया को कराया भारतीय सैनिकों की वीरता का एहसास  

अब आपको जिस युद्ध के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं उसको सुनकर आप भी भरोसा नहीं कर पाएंगे कि उत्तरी इजरायल के एक शहर हाइफा के इस संघर्ष में भारत की सेना के पराक्रम की गाथा आखिर क्यों गाई जाती है।

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  • Publish Date - September 23, 2024 / 12:17 PM IST

नई दिल्ली, 22 सितंबर (आईएएनएस)। पूरी दुनिया जब आधुनिक हथियारों (modern weapons) के खौफ से जूझ रही थी। हर तरफ मंजर ये था युद्ध तोप और बंदूकों के दम पर लड़ी जा रही था। तब भारत के जांबाज घुड़सवारों ने युद्ध के मैदान में इन तोप और गोलों का डंडों और तलवार के दम पर ऐसा मुकाबला किया कि पूरी दुनिया उनके इस पराक्रम का आज भी यश गान करती है। 23 सितंबर 1918 यानी 106 साल पहले का यह संघर्ष तब से लेकर आज तक दुनिया को यह बताता रहा है कि भारतीय सेना के पराक्रम के आगे किसी की कुछ भी नहीं चलती चाहे दुश्मन कितना ही ताकतवर और हथियारों से लैस क्यों ना हो।

अब आपको जिस युद्ध के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं उसको सुनकर आप भी भरोसा नहीं कर पाएंगे कि उत्तरी इजरायल के एक शहर हाइफा के इस संघर्ष में भारत की सेना के पराक्रम की गाथा आखिर क्यों गाई जाती है। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस शहर पर ऑटोमन साम्राज्य यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया और हंगरी का संयुक्त कब्जा था। इसी शहर को संयुक्त सेना के कब्जे से छुड़ाने के लिए भारतीय सेना के जवानों ने अपना पराक्रम दिखाया था।

दरअसल इस शहर की भूमिका इस दौरान इसलिए मित्र राष्ट्रों के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि उनकी सेनाओं के रसद पहुंचाने का समुद्री रास्ता इसी शहर से होकर जाता था। ऐसे में भारतीय सैनिक जो ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से इस शहर पर कब्जे के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनमें से 44 वीरों ने वीरगति को प्राप्त की लेकिन, इस शहर को जीतकर इसे संयुक्त सेना के कब्जे से आजाद जरूर करा दिया। यह लड़ाई पूरी दुनिया की अंतिम घुड़सवार सेना की सबसे बड़ी लड़ाई के तौर पर आज भी याद किया जाता है।

इजरायल के हाइफा शहर में हर साल 23 सितंबर को इन भारत के वीर सैनिकों की याद में हाइफा दिवस मनाया जाता है और तीन भारतीय कैवलरी रेजिमेंट मैसूर, हैदराबाद और जोधपुर लांसर जो तब की 15 इम्पीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड का हिस्सा था उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इजरायल में इस दिवस की शुरुआत साल 2003 से शुरू हुई थी।

इस युद्ध के बारे में इतिहास के पन्नों में जो दर्ज है वह जानकर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है एक तरफ जहां संयुक्त सेना की तरफ से गोले और बारूद बरस रहे थे वहीं दूसरी तरफ भारतीय कैवलरी फौज के पास तलवारें, डंडे और भाले थे। लेकिन, इन वीरे सैनिकों ने माउंट कैरमल की पथरीली पहाड़ों पर अपनी बहादुरी से इसका डटकर मुकाबला किया और संयुक्त सेना को खदेड़कर इस पर अपना अधिकार जमा लिया।

ये एक ऐसी लड़ाई थी जहां युद्ध के मैदान तक चढ़ाई की वजह से ही जाना मुश्किल था। ऊपर से घोड़ों पर सवार भारतीय सेना के जवान ऐसे सैनिकों से लोहा ले रहे थे जो ऊपर बैठे थे और उनके पास गोला, बारूद, तोप और मशीन गन थे। इसके बाद भी भारतीय सूरमाओं का हौसला कहां टूटने वाला था वह आगे बढ़े और घोड़ों को लेकर युद्ध के मैदान तक पहुंच गए। फिर जमकर लड़ाई हुई और अंततः भारतीय जांबाजों ने हाइफा पर कब्जा जमा लिया। मेजर दलपत सिंह जिन्होंने इस सेना का नेतृत्व किया था आज भी दुनिया उन्हें हीरो ऑफ हाइफा कहकर बुलाती है। आजाद भारत की किताबों में भले हाइफा के संग्राम को बच्चों ने कभी नहीं पढ़ा लेकिन इजरायल में कश्रा पांच तक की इतिहास की किताबों में हाइफा की आजादी की कहानी और भारतीय सैनिकों की वीर गाथा आज भी पढ़ाई जाती है।

मेजर दलपत सिंह इस जंग में अपनी सेना का विजय तो देख नहीं पाए और कैप्टन अमन सिंह बहादुर ने इस युद्ध में नेतृत्व करते हुए हाइफा पर भारतीय सैनिकों का कब्जा मुकर्रर किया।