नई दिल्ली, 5 अक्टूबर (आईएएनएस)। जब भारत के महानतम साहित्यकारों की बात होती है, तो उनमें एक नाम दत्तो वामन पोतदार(Datto Vaman Potdar) का भी आता है। मराठी साहित्यकार और प्रसिद्ध समाजसेवी, जिनके प्रयासों की वजह से ही महाराष्ट्र में मराठी के बाद हिंदी दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन पाई।
महाराष्ट्र के ‘साहित्यिक भीष्म’ के नाम से पहचाने जाने वाले दत्तो वामन पोतदार की 6 अक्टूबर को पुण्यतिथि है। महान साहित्यकार पोतदार आजीवन अविवाहित रहे और उन्होंने मराठी साहित्य को नई दिशा देने का काम किया।
दत्तो वामन पोतदार का 5 अगस्त 1890 को महाराष्ट्र के बीरबंडी नामक कस्बे में हुआ था। उनकी शुरुआती शिक्षा पुणे के नूतन मराठी विद्यालय से हुई। बाद में वह इसी स्कूल में शिक्षक बनकर लौटे। उन्होंने इस स्कूल में शिक्षक से प्रिंसिपल तक का सफर तय किया।
बताया जाता है कि पोतदार, इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के शिष्य थे। पोतदार ने संस्कृत में महारत हासिल की और वह बातचीत के दौरान इसी भाषा का इस्तेमाल करते थे। यही नहीं, उन्हें फारसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने ‘भारतीय इतिहास संशोधक मंडल’ की स्थापना की। बाद में उन्होंने मराठी भाषा में लिखना शुरू किया और उन्होंने अपने जीवनकाल के दौरान कई किताबें भी लिखीं।
साल 1956 में वह बम्बई सरकार के प्रतिनिधि के रूप में इटली गए। इसके बाद उन्होंने लंदन , पेरिस , जिनेवा और वारसॉ (1964) का भी दौरा किया।
दत्तो वामन पोतदार को जब पूना विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया तो उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी को महाराष्ट्र में पहुंचाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में कई शिक्षण संस्थान स्थापित किए। शिक्षा के क्षेत्र में उनके सराहनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें साल 1946 में ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि से नवाजा। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए साल 1967 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
इतिहास, संस्कृत और मराठी साहित्य पर दो सौ से अधिक शोध पत्र लिखने वाले दत्तो वामन पोतदार का 6 अक्टूबर 1979 को निधन हो गया।