झारखंड में हेमंत और बाबूलाल में आदिवासियत का बड़ा झंडाबरदार कौन, 2024 में मिल जाएगा जवाब

By : hashtagu, Last Updated : December 30, 2023 | 7:00 pm

रांची, 30 दिसंबर (आईएएनएस)। झारखंड के दो बड़े राजनीतिक दिग्गजों हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी (Hemant Soren and Babulal Marandi) के लिए 2024 एक निर्णायक साल साबित होने जा रहा है। सीएम हेमंत सोरेन को नए साल में सियासी और कानूनी मोर्चों पर जिन कठिन इम्तिहानों से गुजरना है, उनके नतीजों से यह तय होगा कि उनके लिए आगे का रास्ता क्या है?

दूसरी तरफ इस सवाल का भी जवाब नए साल में मिल जाएगा कि भाजपा ने झारखंड (Jharkhand) के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी को राज्य में खोई हुई सत्ता लौटाने की जंग का सेनापतित्व जिस भरोसे के साथ सौंपा है, उस पर वह कितने खरे उतर पाते हैं और इसके उनका आगे उनका राजनीतिक करियर क्या होगा?

हेमंत सोरेन आज की तारीख में झारखंड में गैर भाजपाई राजनीति की सबसे बड़ी धुरी तो हैं ही, आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के रूप में भी स्थापित हैं। अपने पिता और आदिवासियों के बीच “दिशोम गुरु” यानी देश के गुरु के रूप में प्रतिष्ठित शिबू सोरेन की सियासी विरासत को हेमंत सोरेन ने पिछले दस वर्षों में एक नई चमक दी है।

2019 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य की 82 सदस्यीय विधानसभा में 30 सीटें हासिल की थी और सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी।

इस सरकार ने कई झंझावातों के बीच बीते 29 दिसंबर को चार साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है, लेकिन पांचवें साल की शुरुआत के साथ ही उन्हें ईडी की संभावित “बड़ी कार्रवाई” का सामना करना पड़ सकता है। जमीन घोटाले के मामले में वह ईडी के छह समन नकार चुके हैं। हेमंत सोरेन ने ईडी के समन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं, लेकिन उन्हें ठोस राहत नहीं मिली।

ऐसे में यह तय माना जा रहा है कि एजेंसी जांच में असहयोग का हवाला देते हुए जनवरी के पहले हफ्ते में उनकी गिरफ्तारी का वारंट मांगने के लिए कोर्ट का रुख कर सकती है। लेकिन, दिलचस्प बात यह कि हेमंत सोरेन अपनी गिरफ्तारी और जेल जाने की आशंका से कतई भयभीत नहीं हैं।

वे सार्वजनिक तौर पर कई बार कह चुके हैं, “विपक्षी पार्टियां मुझे जेल भिजवाने और हमारी सरकार को गिराने की साजिश शुरू से रच रही हैं। लेकिन, जेल का भय दिखाकर मुझ जैसे झारखंडी को कोई झुका नहीं सकता। मैं किसी चुनौती से घबराने वाला नहीं।”

दरअसल, सोरेन जानते हैं कि अगर उन्हें जेल भी जाना पड़ा तो इससे उनकी सियासी सेहत पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ने वाला। ऐसी स्थिति में वह खुद को आदिवासियों और पार्टी के कोर वोटरों के बीच विक्टिम के तौर पर पेश कर अपने पक्ष में सहानुभूति की एक लहर पैदा कर सकते हैं।

2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए तैयार दिख रहे हेमंत सोरेन आदिवासियों-मूलवासियों को साधने के लिए लगातार कई फैसले ले रहे हैं। 1932 के खतियान पर आधारित डोमिसाइल पॉलिसी का बिल विधानसभा से दुबारा पारित कराने, राज्य में तृतीय और चतुर्थ वर्ग की नौकरियों में झारखंड के डोमिसाइल के लिए शत-प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव, प्राइवेट कंपनियों में 40 हजार तक तनख्वाह वाली नौकरियों में स्थानीय लोगों को 75 फीसदी आरक्षण, बोकारों के लुगुबुरू स्थित संथाल आदिवासियों के सबसे बड़े तीर्थस्थल पर डीवीसी के पावर प्लांट प्रोजेक्ट को न लगने देने का संकल्प, विधानसभा से सरना आदिवासी धर्म कोड बिल पारित कराने, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज को अवधि विस्तार न देने जैसे फैसलों का हवाला देकर वह खुद को सबसे बड़ा आदिवासी-मूलवासी हितैषी के तौर पर प्रचारित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे।

लेकिन, इन तमाम बातों के बावजूद 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता में दुबारा वापसी हेमंत सोरेन के लिए कतई आसान नहीं है। भारतीय जनता पार्टी खनन घोटाला, जमीन घोटाला, शराब घोटाला, धीरज साहू कैश स्कैंडल सहित भ्रष्टाचार से जुड़े अन्य मामलों, संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठ और बेरोजगारों से जुड़े मुद्दों को लेकर उनकी लगातार घेराबंदी कर रही है।

इसके अलावा केंद्र की भाजपा सरकार ने राज्य के आदिवासी वोटरों को लुभाने के लिए लगातार कई योजनाएं लॉन्च की हैं। केंद्र के जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा भी राज्य के आदिवासियों से जुड़े मुद्दों को लगातार एड्रेस कर रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जन्मभूमि खूंटी आकर आदिवासी समुदाय से संवाद का बड़ा कार्यक्रम कर चुके हैं।

भाजपा ने हेमंत सोरेन के मुकाबले के लिए राज्य में बाबूलाल मरांडी को सबसे बड़े आदिवासी चेहरे के तौर पर पेश किया है। 2024 की चुनावी रणनीति के मद्देनजर उन्हें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई है। मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं। 2006 में उन्होंने भाजपा से अपनी राहें जुदा कर अलग पार्टी बना ली थी।

2019 के चुनाव में जब भाजपा ने झारखंड की सत्ता गंवा दी और बाबूलाल मरांडी की पार्टी भी सिमट गई तो दोनों को एक-दूसरे की जरूरत महसूस हुई। बाबूलाल मरांडी की पार्टी का विलय भाजपा में हो गया और इसके एवज में भाजपा ने उन्हें राज्य में नेतृत्व का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया। वह राज्य में भाजपा की सत्ता में वापसी के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। कुशल संगठनकर्ता और रणनीतिकार के रूप में उनकी पहचान होती रही है।

झारखंड के पहले सीएम के तौर पर उनकी छवि विकास पुरुष के तौर पर बनी थी, लेकिन 2003 में सीएम की कुर्सी से उनके हटने के बाद राज्य की राजनीति कई करवटें ले चुकी हैं। ऐसे में अब 2024 में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल में पुराना करिश्मा बाकी है या नहीं? इस साल झारखंड में विधानसभा के पहले लोकसभा के चुनाव होने हैं। राज्य में लोकसभा की 14 में से 12 सीटों पर फिलहाल एनडीए का कब्जा है।

इस बार पार्टी ने सभी 14 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। बाबूलाल की अगुवाई में भाजपा अगर लोकसभा चुनाव में यह लक्ष्य हासिल कर पाती है तो मुमकिन है कि नवंबर में संभावित विधानसभा चुनाव में उन्हें भाजपा की ओर से सीएम के चेहरे के तौर पर पेश किया जाए।

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बाबूलाल को राज्य में पार्टी को अपने तरीके से ड्राइव करने के लिए बिल्कुल फ्री हैंड दिया है। पार्टी के भीतर उन्हें गुटीय गोलंबदी जैसी आतंरिक चुनौती से न जूझना पड़े, इसके लिए भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व सीएम रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर ओडिशा शिफ्ट कर दिया गया तो दूसरी तरफ अर्जुन मुंडा की केंद्रीय मंत्रिमंडल में अहमियत बढ़ा दी गई। वह पहले से जनजातीय मामलों के मंत्री थे। अब उन्हें कृषि मंत्रालय भी सौंप दिया गया है।

बाबूलाल मरांडी ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व मिलने के बाद पिछले दिनों राज्य के सभी 81 विधानसभा क्षेत्रों का क्रमवार दौरा किया और जनसभाएं की। वह हेमंत सोरेन और उनकी सरकार पर लगातार हमलावर हैं। ऐसे में 2024 के लोकसभा और उसके बाद झारखंड विधानसभा चुनाव में उनके सामने खुद को साबित करने की बड़ी चुनौती है।

अगर वह भाजपा की उम्मीदों पर खरे उतर पाए और पार्टी को चुनावों में मनोनुकूल परिणाम मिले तो सियासत में आने वाले वर्षों में उनका कद और ऊंचा होगा। इसके विपरीत अगर झारखंड में भाजपा अपने चुनावी लक्ष्यों के संधान में सफल नहीं रही तो मरांडी के आगे के सियासी करियर पर सवालिया निशान लगना तय है।

कुल मिलाकर, 2024 में इस बात का फैसला हो जाएगा कि झारखंड में हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी में से कौन आदिवासियत का सबसे बड़ा झंडाबरदार होगा।