कांग्रेस का घोषणा पत्र और बगुला बजट

By : hashtagu, Last Updated : March 7, 2023 | 11:15 pm

उज्ज्वल वीरेंद्र दीपक 

कुछ दिनों पहले छत्तीसगढ़ के एक शहर में एक दुकान खुली थी. दुकानदार का दावा था कि हर चीज आधी कीमत में दी जायेगी। शर्त यह थी की कीमत का आधा पैसा पहले जमा करवाना होगा और सामान कुछ हफ्तों के बाद मिलेगा। दुकानदार के मुताबिक जब वो एक साथ बड़ी संख्या में सामान खरीदेगा तो उसे बड़ी छूट मिलेगी और वो छोटा सा मुनाफा रखकर ग्राहकों को आधी कीमत पर सामान देगा। भोली भाली छत्तीसगढ़ी जनता उसके बहकावे में आ गयी और उसके वादों पर विश्वास कर अपनी जमा पूंजी लगा दी. कुछ परिवारों ने तो बेटी के शादी के लिए सारी खरीदारी वही से कर ली. बाजार के बाकी दुकानदारों ने ग्राहकों को समझाने की कोशिश भी की, पर जनता दुकानदार के मोहपाश में फंस चुकी थी. कुछ दिनों तक तो दुकानदार ने अपना वादा निभाया पर बाद में वही हुआ, जिसकी आशंका थी. झूठे और लुभावने वादों पर टिकी दुकान बंद हो गयी और दुकानदार सबके पैसे लेकर भाग गया. ग्राहकों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है और त्वरित कारवाही करते हुए पुलिस ने आरोपी को शायद गिरफ्तार भी किया है.

अफ़सोस यह है की राजनैतिक पार्टियों द्वारा किये गए वादाखिलाफी के खिलाफ किसी भी संवैधानिक संस्था में कार्यवाही करने का नियम कानून नहीं है. राज्य की कांग्रेस सरकार ने भी लगभग इसी तरह से भोली भाली छत्तीसगढ़ी जनता को अपने लुभावने वादों से सम्मोहित किया और भ्रम जाल में फंसा कर अपनी दुकान बंद करवाने की तैयारी कर ली है. अगर 2018 के चुनावों के कांग्रेस पार्टी की घोषणाओं को याद किया जाए तो उसमें मुख्य रूप से किसानों का कर्जा माफ, 2500 रुपये में धान खरीदी , पिछली सरकार द्वारा न दिए गए 2 साल के बोनस की भी अदायगी, राज्य में सभी के लिए बिजली बिल आधा, बेरोजगारों को 2500 रुपये मासिक भुगतान,  शराबबंदी, सभी विधवा महिलाओं को 1000 रुपये प्रतिमाह पेंशन, 200 फूड पार्क की स्थापना, लेमरू / कोरबा जैसे वन क्षेत्रों में हाथी और वन्यजीव अभ्यारण्य स्थापना, चिटफंड में निवेश करने वालों का पैसा वापस होगा। 

उपरोक्त घोषणाओं का विश्लेषण करें तो किसानों की कर्जे माफ़ी में बहुत सारी अनियमितताएं हैं. केवल सहकारी बैंकों से लिए गए कर्जे माफ किये गए हैं. पिछली सरकार द्वारा न दिए गए 2 साल के बोनस की अदायगी की पिछले चार सालों में कोई चर्चा भी नही की गयी है और बिजली के रेट बढ़ा दिए गए हैं. अपने कार्यकाल के आखिरी बजट में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने विधवाओं को 500 रुपये प्रति महीने पेंशन देने की घोषणा की है, जबकि इसे 1000 रुपये होना चाहिए था वो भी चार साल पहले से! सीधे अर्थों में विधवा पेंशन के पिछले 51 महीनों में जो 51,000 मिलने थे, वो 350 रुपये के हिसाब से केवल 17,850 ही मिले हैं. 

इसी तरह बेरोजगारों को 2500 रुपये मासिक भुगतान का वादा कर सत्ता में आयी कांग्रेस सरकार ने युवा बेरोजगारों को केवल छला ही है. हिसाब लगाया जाए तो प्रति बेरोजगार पिछले 51 महीनों में जो 1,27,500 रूपये मिलने थे, वो आज तक शून्य है और अगले 6 महीनों में केवल 15,000 रुपये ही मिलेंगे। जब एक बेरोजगार बैंक से लोन लेता है तो उसे भारी भरकम ब्याज देना होता है और अगर उसे समय पर वापस अदा नहीं कर पाता है, तो ब्याज पर भी ब्याज देना होता है. पेनल्टी लगती है और बैंक उसके व्यापार को बंद करवा उसपे कब्ज़ा कर लेता है. क्या यही कानून सरकार पर लागू नहीं होता? क्या सरकार को ब्याज नहीं देना चाहिए बेरोजगारों को?

बजट में बेरोजगारी भत्ते के लिए केवल 250 करोड़ का प्रावधान किया गया है. इस हिसाब से 10 लाख लोगों को केवल एक महीने का भत्ता ही मिल पायेगा। पर बजट के मुताबिक ये पूरे साल भर के लिए प्रावधान है. इस हिसाब से हर महीने केवल 80,000 बेरोजगार ही हैं पूरे छत्तीसगढ़ में. रोचक बात यह है की एक प्रश्न के उत्तर में विभागीय मंत्री ने उत्तर दिया है की “जिला रोजगार एवं स्वरोजगार मार्गदर्शन केंद्रों द्वारा बेरोजगारों का पंजीयन नहीं किया जाता बल्कि रोजगार चाहने वाले व्यक्तियों का पंजीयन किया जाता है”!! वैसे भी राज्य में बेरोजगारी दर बहुत कम है, इसलिए राज्य शासन पर ज्यादा बोझ नहीं आएगा!

 प्रत्येक ग्रामीण भूमिहीन  5 सदस्यीय परिवार को घर एवं बाड़ी हेतु भूमि देने और शहरी क्षेत्रों में आवासहीन परिवारों को 2 कमरों का मकान देने का वादा कर सत्ता पाने वाली कांग्रेस सरकार ने पिछले 4 साल में प्रधानमंत्री आवास योजना के हितग्राहियों को पैसा भी नहीं दिया है.  
शराब बंदी भी एक जुमला ही साबित हुआ है. इसके नाम पर कई कमिटियां जरूर बन गयी और कई राज्यों का भ्रमण भी हुआ है. पर उससे ज्यादा तो अन्य राज्य की कमिटियां आयीं, छत्तीसगढ़ सरकार की शराब प्रबंधन नीति समझने.  200 फूड पार्क की स्थापना तो नहीं हुई, बल्कि किसान अपना टमाटर फेंकने को जरूर मजबूर हो चुके हैं. लेमरू / कोरबा जैसे वन क्षेत्रों में हाथी और वन्यजीव अभयारण्य स्थापना का वादा सिर्फ कागजी रह गया है क्योंकि रोजाना या तो हाथी मर रहे हैं या ग्रामीण। 

चिटफंड में निवेश करने वालों का पैसा क्या, लगाए गए ब्याज का पैसा भी नहीं मिला है. घोषणा पत्र को पढ़कर जिन निवेशकों ने कांग्रेस को वोट दिया होगा, उन्हें उम्मीद थी की सरकार अपने खजाने से उनको पैसा वापस करेगी, पर सरकार ने तो चिटफंड कंपनियों की संपत्ति बेचकर सिर्फ नाम मात्र पैसा लौटाया है, वो भी गिनती के लोगों को.

छत्तीसगढ़ की जनता को उम्मीद थी की मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपने इस सरकार के इस आखिरी बजट में अपने वायदे पूरे करेंगे और लोगों को “न्याय” जरूर मिलेगा पर उन्होंने सबको निराश ही किया है. मैं खुद आज विधानसभा के अध्यक्षीय दीर्घा में बैठकर बजट भाषण सुन रहा था पर आश्चर्यचकित था कि बजट भाषण के दौरान सत्ता पक्ष में भी सन्नाटा था. न मेजों की थपथाहाट थी न ही कोई उत्साह। न कोई शेरो शायरी थी न ही कोई उमंग-उल्लास का माहौल। शायद राज्य सरकार के पास पैसों की भारी तंगी है. मतदाताओं को खुश करने के लिए कुछ वर्गों का मानदेय जरूर बढ़ाया गया है, पर कोई आमूल -चूल परिवर्तन वाला बजट नहीं है. 

एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया एक संस्था है जो भ्रामक विज्ञापनों पर बैन लगाने और विज्ञापनदाता पर पेनल्टी भी लगाती है. उपभोक्ता फोरम में भी ग्राहकों को यह अधिकार है की वो झूठे वादों के प्रलोभन में आकर अगर किसी वस्तु को खरीदता है, और यदि संतुष्ट नहीं होता तो उसे फोरम में जाकर मुआवजा मांगने का अधिकार है. दुर्भाग्य है कि वोटरों को कहीं जाने और मांगने का अधिकार नहीं है, पर उसे अगले चुनावों में अपने मत का अधिकार करने से कोई नहीं रोक सकता। 

हाल में ही चुनाव आयोग को एक पार्टी बनाकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी है, जिसमें चुनाव से पहले लुभावने वादों पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं. सुनवाई जारी है।  सच यह है की क्या वोटरों को चुनावी घोषणा पत्रों पर भरोसा करना चाहिए या फिर अंत में झुनझुना ही मिलेगा, या फिर राजनैतिक पार्टियों को और अधिक जवाबदेह बनाने के लिए कानून आने चाहियें ?

ये बजट वास्तविकता में “बगुला बजट” है जो दूर से देखने और सुनने में लुभावना प्रतीत हो सकता है परंतु गहराई से समझने पर ये सिर्फ़ झूठ का पुलिंदा नज़र आता है। इस बजट में मध्यमवर्गी श्रेणी के लिए “बचत” के कोई प्रावधान नज़र नहीं आते। आचार संहिता को छह माह शेष होने के बाद भी घोषणाएँ अगले कई वर्षों के लिए की गई है। “आज का भरोसा नहीं, कल होंगे मालामाल” के सपनों से सजे इस बजट पर विपक्ष का हंगामा तो जायज़ है।

लेखक: उज्ज्वल वीरेंद्र दीपक  (uvd2000@columbia.edu )

लोक प्रशासन – कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यू यॉर्क 

(ये लेखक के अपने विचार हैं )