नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। गिरीश होसंगारा नागराजेगौड़ा (Girish), जिनका जन्म गणतंत्र दिवस पर हुआ था। उस वक्त उनके माता पिता दुखी थे, क्योंकि बेटे का बायां पैर ठीक नहीं था। लेकिन, कर्नाटक के एक छोटे से गांव के साधारण परिवार में पैदा हुए इस लड़के ने 4 सितंबर के दिन अपने माता-पिता के पछतावे को हमेशा के लिए गर्व में बदल दिया।
यह कहानी शुरू होती है कर्नाटक के हासन जिले के होसनगर से, जहां नागराजेगौड़ा और जयम्मा ने सोचा भी नहीं थी कि 26 जनवरी के ऐतिहासिक दिन पर जिस खुशी को वह आधा ही सेलिब्रेट कर रहे थे, वह 24 साल बाद देश में एक नया कीर्तिमान लिख रहा होगा। 1988 में पैदा हुए गिरीश वह एथलीट हैं जिन्होंने 4 सितंबर 2012 को लंदन में हुए पैरालंपिक खेलों में पुरुषों के हाई जंप एफ42 इवेंट में सिल्वर मेडल जीता था। मेडल भी कोई साधारण नहीं, बल्कि देश के लिए अपने आप में ऐसा पहला पदक था। भारत ने पैरालंपिक में इस इवेंट में अब तक कोई मेडल नहीं जीता था।
गिरीश के माता-पिता नागराजेगौड़ा और जयम्मा को सोमवार आधी रात को लंदन से अपने मोबाइल फोन पर कॉल के जरिए इस खबर की जानकारी मिली थी। माता-पिता को यकीन नहीं हो रहा था। वह बेटा जिसकी दिव्यांगता को ठीक करने के लिए डॉक्टर ने सर्जरी कराने की सलाह दी थी, लेकिन मां-बाप डर के चलते ऐसा नहीं कर पाए। तब उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे। सालों बाद जब तक उनको अपनी भूल के बारे में पता चला, तब तक समय निकल चुका था। बेटे को ‘सामान्य’ करने का समय निकल गया था, लेकिन बेटा तब तक ‘असामान्य’ उपलब्धि हासिल कर बहुत आगे बढ़ चुका था।
गिरीश का मेडल ऐसे समय आया था जब भारत ओलंपिक के जश्न की खुमारी मना रहा था। गिरीश द्वारा मेडल जीतने से एक महीने पहले ही लंदन ओलंपिक में भारतीय एथलीटों ने छह पदक (एक रजत, पांच कांस्य) देश का सर्वश्रेष्ठ ओलंपिक प्रदर्शन किया था। गिरीश की उपलब्धि ने इस सेलिब्रेशन को दोगुना कर दिया था।
जिस पदक की अहमियत सिर्फ सिल्वर से कहीं ज्यादा थी, गिरीश के गांव में बहुत से लोग उस उपलब्धि से अनजान थे। लेकिन जिन्हें इसका आभास था उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। इन लोगों ने गिरीश को बचपन से देखा था। वह जानते थे कैसे पेशेवर प्रशिक्षण की कमी के बावजूद, केवल गिरीश की इच्छाशक्ति ही उन्हें इस ऊंचाई तक ले गई थी।
गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल से शुरुआती शिक्षा पूरी करने वाले गिरीश ने बचपन से ही खेलों में अपनी रुचि दिखाई थी। वह घर के खंभों में रस्सी बांधकर अपने भाई के साथ कूदते थे। वह धीरे-धीरे रस्सी की ऊंचाई बढ़ाते और हर बार उसे पार कर जाते थे। गिरीश ने एएनवी फर्स्ट ग्रेड कॉलेज, गोरुर से बीए किया। उन्होंने कंप्यूटर की ट्रेनिंग भी ली और लगातार ऊंची कूद की प्रैक्टिस करते रहे।
गिरीश की पहली सफलता का स्वाद भी निराला था। बीए के प्रथम वर्ष में उन्होंने ‘सामान्य’ खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा की थी और धारवाड़ में राज्य-स्तरीय खेल प्रतियोगिता में पुरस्कार जीतकर अपनी प्रतिभा दिखा दी। इसके बाद उन्होंने मैसूर यूनिवर्सिटी खेल प्रतियोगिता में ऊंची कूद में कांस्य पदक जीता। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय ऊंची कूद प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
आयरलैंड में 2006 में दिव्यांगों के लिए जूनियर खेल प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीतना उनकी अंतर्राष्ट्रीय सफलता का पहला क्षण था। तब पैरालंपिक खेलों में बहुत प्रायोजक नहीं होते थे। गिरीश को अपने अन्य करियर पर भी ध्यान देना पड़ा। वह बेंगलुरु में आकर एक बैंक में नौकरी करने लगे। इस दौरान दिव्यांग एथलीटों के लिए कार्य करने वाले एनजीओ का भी सहयोग मिला और उनका अभ्यास जारी रहा।
उन्होंने कुवैत और मलेशिया में एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीते। गिरीश ने बीजिंग पैरालंपिक के चयन ट्रायल के अंतिम दौर में हार का सामना किया था, लेकिन लंदन ओलंपिक में उन्होंने इस हार की भरपाई बहुत अच्छे से करके दिखा दी। उन्होंने इस इवेंट में अपनी तैयारियों पर पूरी तरह फोकस करने के लिए छह महीने पहले ही अपनी बैंक की नौकरी को छोड़ दी थी। गिरीश कुमार ने मेडल जीतने के बाद कहा था कि वह लंदन ओलंपिक में खिलाड़ियों के मेडल जीतने से बहुत प्रेरित थे। खासकर सिल्वर मेडल जीतने वाले पहलवान सुशील कुमार से।