रायपुर। इसने कर दिया बंटाधार तो कोई कहेगा ये खूब लूटा। बजेगी तालियां और भी लगेंगे नारे। चुनावी में ताल ठोंकने के लिए नेता जी (Netaji) फूले नहीं समा रहे। अब नहीं तो फिर कभी नहीं की तर्ज पर अपने समर्थकों की टोली के सक्रिय हो जाएंगे। अभी सिर्फ कानाफूसी और दूसरे की ताक-झांक में लगे हैं। अपनी दावेदारी के लिए खुद न आगे आकर दूसरों से नाम लिवाए जा रहे हैं। पार्टियों के नेता जी। अपने-अपने पार्टी के कुनबे में बड़े ओहदेदारों के यहां चक्कर लगा रहे हैं। क्योंकि चुनावी मानसून (Election monsoon) का छोटा ही सही मौसम तो बनता है चुनाव लड़ने का । क्या पता किसी किस्मत कहां से चमक जाए और फिर तो आगे रास्ता भी आसां होना लाजमी है। सियासतबाजों की दुनिया में जोड़ तोड़ की जुगत और एक दूसरे को मात देने की चुनावी शतरंजी चालें भी तैयार हैं। बस नाम फाइनल भर होने की देरी है। एक नेता जी कहते हैं कि नाम में क्या रखा है, जिस पर मेहरबानी होगी उसका ही नंबर लगेगा, लेकिन अभी से कम से कम चर्चा तो हाेना ही चाहिए। क्योंकि बारिश से पहले चुनावी मानसून का बनना जरूरी है।
यहां छत्तीसगढ़ के चुनावी मौसम का मानसून सिर्फ एक ही विधानसभा सीट पर बनेगी। हो सकता है कि प्रदेश के अन्य हिस्सों में नगरीय मानसून की फुहारें पड़े। अगर ऐसा हुअा तो पार्टियों के सियासी महारथियों की टोलियां जगह-जगह कूच करेंगे। और फिर छिड़ जाएगी जुबानी जंग। वैसे प्रदेश के नगरीय चुनावों पर सत्तासीन पार्टी और विपक्ष में तेज जंग होने की संभावना है। क्योंकि विपक्ष भी कोई कमतर नहीं है, उसके भी 35 विधायक निर्वाचित होकर आए हैं। ऐसे में नगरीय निकाय चुनाव में वहीं दूसरी ओर सत्ताधारी नेताओं के लिए तो ‘क्लीन स्विप’ ही लक्ष्य तय होगा।
इतना तो तय है कि वर्तमान पार्षद के लिए राहें काफी दुश्वारियां भरी होंगी, क्योंकि आज भी राजधानी सहित कई नगरी हिस्से हैं, जहां बारिश के समय जलभराव और गंदगी के निस्तारण की समस्या पांच साल से जस की तस विद्यमान है। ऐसे में उनके लिए जनता से वोट मांगने के दौरान खासतौर पर इन समस्याओं पर क्या जवाब होता है, वह देखने वाली बात होगी। क्योंकि नगरीय निकाय की सरकारों के खिलाफ जनता में जबरदस्त आक्रोश भी है। ऐसे में मच्छर से बचने नेता जी जालीदार कुर्तें और अपने तर्क के ताना बाना अभी से बुनने लगे। क्योंकि वर्तमान पार्षदों के सामने तो चुनौती है, कि कैसे वे जनता का सामना करें। लेकिन जिन्हें पहली बार नगरी और शहरी सरकार में पार्षद की कुर्सी पानी है, उनके लिए तो मुद्दे ही मुद्दे हैं।
ये चुनौती नेता जी पर है, अपनी छवि कैसे सुधारें? पब्लिक सिर्फ 5 साल बाद वोट देने का काम करती है। वैसे नेता नगरी से प्रति जनता का बिछोह और क्षोभ तो नोटा के वोटों से आंकलन करना चाहिए। बीते, लोकसभा और विधानसभा में इसकी बानगी एक दो जगहों पर नहीं पूरे देश में देख सकते हैं। जो अत्यंत विचारणीय प्रश्न है! इस पर सभी समस्याओं से ज्यादा शोध करने की और नोटा के प्रति लोगों के रुझान को पढ़ने की जरुरत है, इसके कारणों को दूर करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग से ज्यादा पार्टियों के नेताओं और सरकारी तंत्र की है।…. तब नेता जी बोलेंगे, जय हो जनता जर्नादन की।
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