Political Story : कांग्रेस में ‘हार’ पर रार! फूट के सियासी ‘गुब्बार’ की बड़ी वजह

विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में बगावत के सुर फूटने लगे हैं। हार के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए जैसे होड़ मची है।

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  • Updated On - December 15, 2023 / 12:42 AM IST

रायपुर। भूपेश सरकार की विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद अब कांग्रेस में बगावत (Rebellion in congress) के सुर फूटने लगे हैं। हार के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए कांग्रेस में जैसे होड़ मची है। ऐसे में वो पूर्व विधायक भी हैं, जिन्हें चुनाव में विधानसभा का टिकट नहीं मिला था। वे अब इसके लिए सीधे तौर पर कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी कुमारी सैलजा (State in-charge Kumari Selja) और टीएस सिंहदेव को जिम्मेदार बता रहे हैं तो कोई सत्ता के विकेंद्रीकरण हाेने को कारण गिना रहे हैं। अब जो भी हो लेकिन कांग्रेस ने अपने पार्टी के अंडर करंट को समझने के बजाए सिर्फ 75 पार के दावे करती रही। लेकिन आकर 35 सीट पर सिमट गई। इससे प्रदेश कांग्रेस ही नहीं केंद्रीय नेतृत्व भी सकते में हैं।

  • यही कारण भी है कि अपने ही पार्टी के बारे में बयानबाजी करने वाले नेताओं को हिदायत दी है कि अगर कोई हार की वजह को लेकर गलत बयानबाजी करते हैं तो उन पर कार्रवाई की जाएगी। लेकिन इस चेतावनी को धता बताते हुए पूर्व विधायक विनय जायसवाल और बृहस्पत सिंह पार्टी विरोधी बयानबाजी करते रहे। जिससे बृहस्पत सिंह इंकार करते रहे। लेकिन पार्टी ने उसे मानने से इंकार करते हुए उन्हें छह साल के पार्टी से निलंबित कर दिया। वहीं पूर्व विधायक विनय जायसवाल ने खुद टिकट के लिए पार्टी पदाधिकारी पर घूस देने के आरोप तक जड़ दिए। इससे विरोधी पार्टी बीजेपी को हमला करने का मौका मिल गया। जिसे संज्ञान में लेते हुए कांग्रेस ने
    विनय जायसवाल को भी पार्टी से आउट कर दिया है।

पार्टी गुटबाजी के कई कारण ने डुबाई कांग्रेस की नैया

  • जानकार बताते हैं कि कांग्रेस पार्टी के अंदर गुटबाजी की लकीरें उसी समय पड़ गई थीं। जब उसे 2018 में 15 साल के बाद प्रचंड बहुमत मिला है। कांग्रेस ऐतिहासिक 68 सीटें जीत कर सरकार बनाई। लेकिन कांग्रेस की सरकार लाने में जय-वीरू की जोड़ी के रूप में विख्यात भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच सीएम पद के ढाई-ढाई साल के मुद्दे पर अंदरूनी रूप से टूट गई थी। इसके बाद कांग्रेस में ऐसे कुछ घटनाक्रम कांग्रेस में लगातार घटते रहे। जिसे कांग्रेस ने भूपेश की लोकप्रियता के आगे संगठन की गतिविधियों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस की अंदरूनी चीजें सार्वजनिक होती रहीं।

मसलन, जैसे टीएस सिंहदेव पर उनके ही पार्टी के विधायक बृहस्पत सिंह द्वारा जान से मारने का आरोप लगाना और फिर बृहस्पत सिंह ने इसके लिए विधानसभा में माफी मांगी। चर्चा है कि इन सब के पीछे एक सिंडिकेट गुप्त रुप से काम कर रहा था, ताकि भूपेश के ढाई साल बाद टीएस सिंहदेव सीएम न बन सकें। टीएस सिंहदेव भी सब कुछ जानते हुए चुप्पी साधे हुए थे। नतीजा अंदर ही अंदर दो गुट में विधायक भी बंट गए। इसमें एक गुट की सरकार में सुनवाई हाेती थी तो दूसरा गुट नेपथ्य में चला गया।

इसके बाद कांग्रेस में विधानसभा चुनाव में ब्लॉक स्तर पर टिकट के दावेदारों के नाम मंगाए गए। लेकिन इसमें सभी को टिकट तो मिलना संभव नहीं था। इससे भी भीतरघातियों की लॉबी तैयार हो गई थी। वहीं कांग्रेस ने वर्तमान विधायकों के टिकट काटे, इसके पीछे दलील थी कि जिन विधायकों के परफार्मेंस ठीक नहीं है, उनके टिकट काटे गए हैं। लेकिन पार्टी ने जिनके टिकट काटे, उन्हें विश्वास में नहीं लिया कि मिशन 2023 को सफल बनाना है। यही कारण था, उस जोश के साथ चुनाव मशक्तत शायद नहीं हो पाई होगी। वैसे सब कुछ संगठन के भी कारण नहीं थे। इसके अलावा भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी कांग्रेस के खिलाफ लहर पैदा की।

  • यहां यह जिक्र करना लाजमी होगा कि जिस तरह से टीएस सिंहदेव ने 18 लाख गरीबों के आवास नहीं बनने से सार्वजनिक रूप से इस्तीफा दिया, जो सोशल मीडिया पर उनके इस्तीफे का दर्द वायरल हुआ। उससे जनता में एक संदेश चला गया कि कांग्रेस जानबूझकर केंद्र के पीएम आवास को लागू नहीं कर रही है। कुछ योजनाएं तो भूपेश सरकार में सफल रहीं तो कुछ अमलीजामा नहीं पहन सकी।

जिसे मुद्दा बनाने का मौका बीजेपी को दे दिया। इन सबके बावजूद कांग्रेस ने सरगुजा संभाग को साधने के लिए टीएस सिंहदेव को उपमुख्यमंत्री तो बनाया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, क्योंकि जब टीएस सिंहदेव उपमुख्यमंत्री बने थे, उस समय जानकारों का तर्क था, ये फैसला जब कांग्रेस की नई सरकार बनी थी, उसी समय कर देना था या ढाई साल बाद जब दिल्ली में विधायकों की दौड़ चल रही थी, उसी समय डिप्टी सीएम बना दिए होते तो शायद आज तस्वीर कुछ और होती।

  • इसके साथ ही यह भी जिक्र करना होगा कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के नजदीक आने पर आदिवासी प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम को हटाना भी एक कारण हो सकता है। क्योंकि आदिवासियों के नेता के रूप में मोहन मरकाम की लोकप्रियता बढ़ रही थी। ऐसे में उन्होंने संगठन को 2023 की चुनावी रणनीति के हिसाब से तैयार करने में जुटे थे। पर उनके भी कुछ फैसले बदलवा दिए गए। यह खबरें भी मीडिया में चली थी। उनके अध्यक्ष के ताैर पर हटाने को लेकर कांग्रेस कार्यकर्ताओं और खासतौर पर आदिवासी समुदाय में नाराजगी पैदा हुई।

बरहाल, इसके अलावा जनघोषणा पत्र के वे वादे भी हैं, जो बीजेपी के पक्ष में गए। मोदी की गारंटी ऐसे में चल पड़ी। लेकिन चुनावी परिणाम के बाद पूर्व मंत्री अमरजीत भगत ने भी कह दिया है कि सभी अपना-अपना चलाने में निपट गए। जो मीडिया में प्रसारित हुईं। लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या लोकसभा चुनाव में कैसे कांग्रेस अपने संगठन की विसंगतियों उभरेगी। क्योंकि कुछ ही महीने में लोकसभा का चुनाव है।

वजह जो भी हो, लेकिन कहा गया है कि हर हार के बाद ही जीत का रास्ता तय होता है। इसलिए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इस पर मंथन करने की आवश्यकता है कि हार के क्या कारण थे। क्योंकि पार्टी जब एक बयान और एक लाइन पर चलती है, तभी कार्यकर्ताओं को भरोसा कायम होता है। कार्यकर्ताओं को अहमियत कमतर आंकाने वाली पार्टियों की सरकारें अक्सर दोबारा वापसी नहीं कर सकती हैं। क्योंकि कार्यकर्ता ही अपने सरकार के कामकाज को लेकर जनता के बीच जाते हैं। वह भी तब जब उन्हें लगता तो हो कि उनके काम सरकार बने रहने पर नहीं रूकेंगे। अगर ऐसा नहीं लगता है तो स्वभाविक रूप से वे उदासीन हो जाते हैं। यह किसी एक पार्टी के लिए नहीं सभी पार्टियों के लिए है।

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