जहां कांग्रेस को दिखी उम्मीद, वहां इंडिया गठबंधन की कर दी अनदेखी, हार ने फिर भी नहीं छोड़ा पीछा

हरियाणा में चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही कांग्रेस को यह लगने लगा था कि पार्टी यहां इस बार सत्ता में वापसी कर सकती है

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  • Updated On - October 9, 2024 / 12:51 AM IST

नई दिल्ली, 8 अक्टूबर (आईएएनएस)। हरियाणा में चुनाव (Elections in haryana) की तारीखों के ऐलान के साथ ही कांग्रेस को यह लगने लगा था कि पार्टी यहां इस बार सत्ता में वापसी कर सकती है और उसका 10 साल का राजनीतिक वनवास समाप्त हो सकता है। लेकिन, कांग्रेस के अंदर के अंर्तकलह (Infighting within Congress) ने पार्टी को फिर से ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया, जिसके बारे में पार्टी ने कल्पना भी नहीं की थी। हरियाणा में ऐतिहासिक जीत के साथ भाजपा ने तीसरी बार सत्ता में वापसी की। वहीं, कांग्रेस का राजनीतिक वनवास 5 साल के लिए और बढ़ गया।

दरअसल, यहां चुनाव की घोषणा के बाद से लेकर कांग्रेस में टिकट बंटवारे तक इतना अंदरूनी कलह सामने आया और साथ ही 10 साल से प्रदेश की सत्ता से बाहर रहे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के भीतर का जोश इतना ठंडा था कि पार्टी को यहां हार का सामना करना पड़ा। पार्टी पहले से तीन खेमे में बंटी थी। पार्टी की सबसे बड़े दलित चेहरे के रूप में जानी जाने वाली कुमारी शैलजा पार्टी के टिकट बंटवारे को लेकर नाराज नजर आईं। भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खेमे का टिकट बंटवारे में दबदबा रहा। कई पूर्व विधायक और नेता नाराज होकर दूसरी पार्टी में चले गए और वहां उन्हें उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में जगह भी मिल गई।

ऊपर से कुमारी शैलजा पार्टी पक्ष में चुनाव प्रचार करने भी देर से आईं। राहुल गांधी का मंच पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा का हाथ मिलवाकर पार्टी के कार्यकर्ताओं को एकजुटता का संदेश देना भी बेकार गया। वहीं, पार्टी में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अलावा कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला का सीएम कैंडिडेट के तौर पर अपने आप को इशारों-इशारों में बताना भी पार्टी के लिए परेशानी का कारण बना रहा। ऊपर से कांग्रेस ने इस चुनाव के लिए देर से कमर कसी। इसके साथ ही कुमारी शैलजा को लेकर पार्टी के भीतर जो चला उसकी वजह से ओबीसी और दलित वोट बैंक कांग्रेस से खिसका और यह कहीं ना कहीं भाजपा की तरफ चला गया।

इस सब के बीच कांग्रेस जो लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ इंडी गठबंधन की सूत्रधार बनकर खड़ी थी। वह इस चुनाव में अति महत्वाकांक्षा में अपने सहयोगी दलों को ही साथ लेने से पीछे हट गई। कांग्रेस को लग रहा था कि वह भाजपा को यहां अकेले शिकस्त दे देगी। ऐसे में उसने अकेले ही चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया। वहीं, आम आदमी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन के लिए 10 सीटों की मांग कर रही थी। लेकिन, कांग्रेस यह मानने को तैयार नहीं हुई। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी ने भी कांग्रेस से सीटों की डिमांड की थी। लेकिन, कांग्रेस ने इस पर भी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी। दरअसल, कांग्रेस ने केवल हरियाणा में ऐसा नहीं किया था।

इसके पहले छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के पीछे सपा और आप घूमती रही और अंत तक उसे पार्टी की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला। सपा को तो हरियाणा विधानसभा चुनाव में कई बार अलग-अलग मंचों से कहने के बाद भी कांग्रेस ने कोई जवाब नहीं दिया। वहीं, आम आदमी पार्टी ने जब भांप लिया कि कांग्रेस गठबंधन के लिए हामी नहीं भर रही है तो आप ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी। इससे पहले मध्य प्रदेश में सपा को और छत्तीसगढ़ में आप को कांग्रेस की तरफ से ऐसे ही जवाब नहीं मिलने की वजह से अपने उम्मीदवार उतारने पर मजबूर होना पड़ा था।

कांग्रेस को जहां भी अपनी पार्टी की उम्मीद दिखी, उसने ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों की अनदेखी की और इसके बाद भी तीनों ही राज्यों में हार ने कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ा। ऐसे में अब हरियाणा से आए चुनावी नतीजों का असर यूपी के उपचुनाव में भी देखने को मिलेगा। यहां इंडिया गठबंधन में सहयोगी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी इन नतीजों का विश्लेषण अपने-अपने तरीके से कर रही है। अब जब हरियाणा में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं लगा तो ऐसे में यूपी में कांग्रेस सपा से ज्यादा मोलभाव करने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस लोकसभा चुनाव की सफलता को गिनाकर यूपी उपचुनाव में ज्यादा सीटें चाह रही है। लेकिन, सपा को जमीनी हकीकत पता है और दो राज्यों में अपनी अनदेखी भी वह नहीं भूली है। ऐसे में यहां इंडिया गठबंधन के दल कांग्रेस के साथ क्या करेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।

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