त्रिलोचन शास्त्री : समाज की नब्ज समझने वाला कवि, जिन्होंने शेक्सपीयर और मिल्टन को भी पीछे छोड़ दिया
By : hashtagu, Last Updated : August 20, 2024 | 11:31 am
त्रिलोचन एक ऐसे कवि रहे, जिन्होंने समाज को उस नज़र से देखा, जिसे देखने के लिए किसी खास चश्मे की नहीं, एक कोमल दिल और मजबूत समझ की जरूरत होती है। हिंदी साहित्य में प्रगतिशील काव्य धारा के कवि त्रिलोचन ने अपनी लेखनी से समाज की उन ज्वलंत समस्याओं की तरफ इशारा किया, जो उनके समय में हाशिए पर सुस्ता रहे थे।
सीमाओं और जातियों के बंधनों से दूर त्रिलोचन ने ऐसी कृतियां गढ़ी, जिनकी आज भी खूब प्रशंसा होती है। उन्होंने सारी मानव जाति को एक साथ आकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर कवि त्रिलोचन शास्त्री का आज जन्मदिन है। इस लिहाज से उनके बारे में जानना और उनके लिखे को समझना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।
पीड़ित वर्गों के दुख-दर्द, पीड़ा, अत्याचार और उनकी आवाज़ बनने वाले कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के चिरानी पट्टी में हुआ। ‘हिंदवी’ वेबसाइट के मुताबिक उनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि मिली, जो उनसे हमेशा के लिए जुड़ गई और वह कवि त्रिलोचन शास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हुए।
काशी से अंग्रेज़ी और लाहौर से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने के बाद त्रिलोचन शास्त्री ने पत्रकारिता का रास्ता चुना। उन्हें हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत के अलावा अरबी और फारसी का भी ज्ञान था। उन्होंने कई नामचीन प्रकाशन ‘प्रभाकर’, ‘हंस’, ‘आज’, ‘समाज’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और उन्हें विशिष्ट से अति विशिष्ट बनाने में सफल हुए। त्रिलोचन की कविताओं में मेहनतकश और समाज के दबे-कुचले वर्ग की व्यथा और आवाज़ समाहित थी।
उन्होंने समाज के हर वर्ग को अपने शब्दों में शामिल किया और अपनी रचना के रूप में समाज के सामने रखा। अंग्रेजी के सॉनेट (अंग्रेजी छंद) की भारतीय युवाओं की एक बड़ी टोली फैन हुआ करती थी। त्रिलोचन को हिंदी में सॉनेट को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। इस विद्या में उन्होंने इतनी रचनाएं की, जितनी शायद विलियम शेक्सपीयर, मिल्टन और एडमंड स्पेंसर जैसे कवियों ने भी नहीं की थी। उन्होंने गीत, ग़ज़ल से लेकर चतुष्पदियां (सॉनेट) और कुंडलियां तक लिखी।
उनकी खासियत मुक्त छंद की छोटी और लंबी कविताएं भी रही। जिन्हें आज भी समाज का एक बड़ा तबका पसंद करता है। सोशल मीडिया के इस दौर में भी त्रिलोचन की कविताएं आपकी आंखों के सामने से गुजरती जरूर हैं। त्रिलोचन की कविताओं में माटी की सौंधी सुगंध है तो देशज शब्दों से भरे गांव-शहर के अंतर्द्वंद्व में उलझे मानव के संघर्ष की व्यथा। शायद, ‘बिस्तरा है न चारपाई है,ज़िंदगी खूब हमने पाई है’ कविता त्रिलोचन की उसी भाव को समाहित करता है, जिसके वो उस्ताद थे।
‘1945’ में उनका पहला कविता संग्रह ‘धरती’ प्रकाशित हुआ, जिसने खूब वाहवाही बटोरी। उनके ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘उस जनपद का कवि हूं’, ‘ताप के ताए हुए दिन’, ‘शब्द’, ‘तुम्हें सौंपता हूं’, ‘जीने की कला’ जैसे कविता संग्रह ने भी लोगों को ना सिर्फ हिंदी से जोड़ा, उन तक समाज के मर्म को भी पहुंचाया।
त्रिलोचन को हिंदी से बेहद लगाव था। उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता को खूब समर्थन दिया। लेकिन, बाजार वाद के मुखर विरोधी भी रहे। उनका हमेशा कहना था कि भाषा में जितने ज्यादा प्रयोग किए जाएंगे, वह भाषा उतनी ही ज्यादा समृद्ध होती चली जाएगी।
केदारनाथ सिंह ने कहा था, “भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद ही सजग कवि हैं। त्रिलोचन की कविता में अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आकर अपनी जगह बनाते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन शब्द भी उतनी ही सहजता से उनकी लेखनी में शामिल हो जाते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं।” यही बात उन्हें खास और दूसरे कवियों से अलग बनाती है।
त्रिलोचन शास्त्री को कई सम्मान मिले। उन्हें हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान दिया। वहीं, हिंदी साहित्य के पोषण के लिए ‘शास्त्री’ और ‘साहित्य रत्न’ जैसी उपाधियां भी मिली। उन्हें 1981 में ‘ताप के ताए हुए दिन’ के लिए साहित्य अकादमी जैसा प्रतिष्ठित सम्मान भी मिला। उन्होंने अपने जीवन काल में कई उपलब्धियां हासिल की। अपनी रचनाओं से समाज को दिशा दिखाते रहे।
जीवन के अंतिम समय में भी त्रिलोचन लिखने-पढ़ने और गढ़ने में व्यस्त रहे। हरिद्वार के पास ज्वालापुर को अपना ठिकाना बना लिया। त्रिलोचन शास्त्री का निधन 9 दिसंबर 2007 को गाजियाबाद में हुआ था।