लखनऊ, 26 मार्च (आईएएनएस)। उत्तर प्रदेश को एक समय कांग्रेस पार्टी (Congress party) का गढ़ माना जाता था। अमेठी और रायबरेली निर्वाचन क्षेत्रों ने हमेशा गांधी-परिवार के लोगों को संसद भेजा। हालांकि, कांग्रेस अब लोकसभा में केवल एक सांसद और 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधान सभा में केवल दो विधायक तक सिमट कर रह गई है।
इस लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में करो या मरो की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी में आत्मविश्वास और नेतृत्व की कमी है, साथ ही उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे हैं।
उत्तर प्रदेश विधान परिषद में फिलहाल कांग्रेस का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी में 6.36 फीसदी वोट मिले थे।
इन चुनावों में सबसे बड़ा झटका यह था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को अमेठी में हार का सामना करना पड़ा, जहां पिछले चुनाव में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी विजयी हुई थीं।
कार्यकर्ता निराशा में डूब गए और 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में पार्टी का वोट शेयर घटकर मात्र 2.33 प्रतिशत रह गया।
अगर इस बार पार्टी का प्रदर्शन और गिरता है तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधित्व नहीं रह जाएगा। यह एक ऐसा राज्य है, जिसने देश को 9 प्रधानमंत्री दिए हैं।
कांग्रेस को राजनीतिक समीकरणों को साधने और जीतने की क्षमता का मूल्यांकन करने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वह 2024 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही है।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती न केवल रायबरेली को बचाना है, बल्कि उत्तर प्रदेश में अपनी सीटें बढ़ाना भी है।
पार्टी को अभी दो प्रमुख संसदीय (अमेठी और रायबरेली) निर्वाचन क्षेत्रों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा करना बाकी है। अभी तक यह पता नहीं चला है कि गांधी परिवार का कोई सदस्य इन सीटों पर चुनाव लड़ेगा या नहीं।
सोनिया गांधी 2019 में उत्तर प्रदेश में जीतने वाली एकमात्र कांग्रेस उम्मीदवार थीं। उन्हें रायबरेली में 55.78 प्रतिशत वोट मिले। राहुल गांधी 43.84 फीसदी वोटों के साथ अमेठी में स्मृति ईरानी से हार गए थे। ईरानी ने 49.69 फीसदी वोटों के साथ जीत हासिल की।
हर चुनावी अंकगणित में सबसे पुरानी पार्टी के खिलाफ खड़े होने के साथ, क्या कांग्रेस असंभव काम कर सकती है और देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में अपनी स्थिति को पुनर्जीवित कर सकती है?
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