रायपुर /प्रफुल्ल पारे। सम्भवतः यह पहला मौका होगा जब नक्सल आतंक के खिलाफ बस्तर के नक्सल पीड़ित (Naxal victims of Bastar) आदिवासियों ने राष्ट्रपति और केंद्रीय गृह मंत्री के अलावा वामपंथ के गढ़ कहे जाने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (Jawaharlal Nehru University) में अपनी पीड़ा को साझा किया होगा। केवल इतना नहीं, नक्सल प्रभावित बस्तर से आए लगभग पचास से अधिक पीड़ितों ने देश की राजधानी दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में भी अपनी व्यथा और चुनौतियों को साझा किया।
सामाजिक विसंगति, आर्थिक अभाव और उस पर नक्सल हिंसा का दंश झेलने वाले इन आदिवासियों को ज्ञान के परिसर जे एन यू में कदम रखते ही अपमान का एक और कड़वा घूंट पीना पड़ा।
जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने इन आदिवासियों की बस को गेट पर ही रोक दिया। सवाल ये कि ऐसा करने से हासिल क्या हुआ ? नक्सली हिंसा में जिनके पैर कट गए वो बैसाखी के सहारे परिसर के अन्दर आए। जिनकी आंखें चली गई वे किसी और सहारे से परिसर में दाखिल हुए। नक्सली हिंसा से पीड़ित ये आदिवासी कोई हंगामा करने तो विश्विद्यालय में नहीं आये थे फिर ज्ञान के मंदिर में ऐसा व्यवहार क्यों ? नक्सली हिंसा से लड़ रहे सेना के जवानों की मौत पर जश्न मनाने वाले इस ज्ञान के परिसर में नक्सली हिंसा से उजड़ गए आदिवासियों के लिए लेस मात्र सहानुभूति का भाव क्यों नहीं है। भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा बुलंद करने वाले इस ज्ञान के परिसर को राष्ट्रवाद से इतनी घृणा क्यों।
बहरहाल, इन आदिवासियों ने विश्वविद्यालय में प्रवेश भी किया अपनी बात भी रखी और राष्ट्रवादी नारे भी लगाए और यह साफ़ संदेश भी दिया कि आतंक के इस अंधकार का अंत तय हो गया है अब शांति और समृद्धि का सूर्य उगने वाला है। पीड़ितों ने कहा कि बस्तर के विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के अवलम मारा ने 22 फरवरी 2017 को प्रेशर बम के विस्फोट में अपना बायां पैर गंवा दिया। अवलम जंगल में बाँस काटने के लिए गया था, जब यह हादसा हुआ। जैसे ही उसने बम पर पैर रखा, तेज धमाका हुआ और उसका पैर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इस हादसे ने उसे जीवनभर के लिए बैसाखी के सहारे जीने को मजबूर कर दिया।
17 मई 2010 को माओवादियों ने एक यात्री बस पर हमला किया, जिसमें 15 निर्दोष ग्रामीण मारे गए और 12 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। सुकमा जिले के निवासी दुधी महादेव इस हमले में अपने दाहिने पैर से हाथ धो बैठे। इन कहानियों ने लोगों को झकझोर दिया और नक्सली हिंसा के अमानवीय चेहरे को उजागर किया। ये पहली सरकार है जिसने इस लाल आतंक के खात्मे की तारीख निर्धारित की है। क्योंकि सच केवल इतना है कि आर्थिक बराबरी और सामाजिक न्याय के नाम पर आदिवासियों को बहलाने वाला यह विचार अब आतंकवाद में परिवर्तित हो चुका है। इसका घिनौना चेहरा भी सामने आ गया है और अब इसके खात्मे का भी समय आ गया है।