Bastar Dussehra: बस्तर में 75 दिनों तक चलने वाला विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक दशहरा पर्व अपने खास और अनोखे रीति-रिवाजों के लिए जाना जाता है। इन्हीं में से एक है काछनगादी रस्म जो 21 सितंबर की शाम भंगाराम चौक में पूरी की गई। इस रस्म में एक कुंवारी कन्या बेल के कांटों से बने झूले पर लेटती है और बस्तर राजपरिवार को दशहरा मनाने की अनुमति देती है।
इस बार भी 10 वर्षीय कुंवारी कन्या पीहू दास ने यह रस्म निभाई। यह लगातार चौथा साल है जब पीहू ने देवी स्वरूप में आकर बस्तर राजघराने को पर्व की अनुमति दी।
बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद्र भंजदेव ने बताया कि काछन देवी और रैला देवी राजपरिवार की बेटियां थीं जिन्होंने आत्महत्या की थी। मान्यता है कि आश्विन अमावस्या के दिन पनका जाति की एक कुंवारी कन्या पर काछन देवी की सवारी आती है। इसके बाद कन्या को बेल के कांटों से बने झूले में लिटाया जाता है और देवी स्वरूप में वह राजपरिवार को दशहरा मनाने की अनुमति देती है।
रस्म के दौरान बस्तर राजपरिवार के सदस्य, मांझी चालकी, पुजारी, दशहरा समिति के लोग और शासन-प्रशासन के अधिकारी भंगाराम चौक में एकत्र होते हैं। जैसे ही देवी की ओर से अनुमति मिलती है, राजमहल में दशहरे की औपचारिक शुरुआत हो जाती है।
इस बार देवी ने फूल स्वरूप में अनुमति दी है जिसका मतलब है कि आने वाला पर्व सुख और समृद्धि से भरा रहेगा। कमलचंद्र भंजदेव ने बताया कि काछनगादी की रस्म के बाद ही राजपरिवार दशहरा की अगली सभी रस्मों में भाग लेता है। रस्म के दौरान परंपरागत धनकुली गीत भी गाया जाता है जो मां गुरु के प्रति आस्था को दर्शाता है।
बस्तर दशहरा की यह परंपरा आदिवासी संस्कृति की गहराई और आस्था का प्रतीक है जो हर साल हजारों लोगों को अपनी ओर खींचती है।