घूमता आईना : ‘कर्म-अकर्म-विकर्म’ के केंद्र में नाचती ‘मायावी’ दुनिया! IFS ‘तापेश झा’ की कलम से
By : hashtagu, Last Updated : February 27, 2024 | 11:23 pm
“कोउ नृप होय हम हिं का हानी। चेरि छांड़ि अब होब कि रानी।।”
वैसे भी किसी फॉरेस्ट गार्ड (Forest guard) के सस्पेंशन से वैसा कौन सा तूफान आ जाना था। हां यह सन्नाटा, इस वक्त का सन्नाटा जरूर थोड़ा कोलाहल सा मचाता हुआ सा लग रहा था
अब 90 के दशक में कोई सोशल मीडिया भी नहीं था । तो किसी भी टाइप के तूफान को सवारी के लिए आज के सोशल मीडिया जैसी हवा भी मौजूद नहीं हुआ करती थी। टेलीग्राम फैक्स (Telegram fax) से चाहे जितना भी कोशिश कर लो तूफान अपने उफान के मुकाम तक आने के पहले ही फुस्स हो जाता था यह बात और है कि आज के सूचना क्रांति के दौर में भी तूफान की शुरुआत भले ही तूफान से होती हो पर एक बात अभी भी कायम है कि आज भी अपने मुकाम पर पहुंचने के पहले कोई भी तूफान अगले सैकड़ो वेटिंग इन लाइन तुफानो की भीड़ की धक्का मुक्की में अभी भी फुस्स सा ही हो जाता है।
ऐसी ही फुसफुसाहट से भरी फैक्स पर मिली महीनों पहले डे की गई एक शिकायत कार्यालय में अधिकारी की टेबल पर पड़ी पड़ी अपना सौंदर्य और कौमार्य दोनों खो चुकी थी। पर जैसे कहते हैं कि ब्यूटी लाइज इन द आईज ऑफ़ द बिहोल्डर: कभी ना कभी हर फिरदौस को उसका एक सरफिरा आशिक मिल ही जाता है। तो इस शिकायत की मोहब्बत में भी किसी को तो पड़ना ही था।
सरकारी नौकरी में ट्रांसफर की व्यवस्था कमोवेश ऐसी ही एक व्यवस्था होती है ताकि हर जरूरी गैर जरुरी मुद्देनुमा फिरदौस को उस पर गौर फरमाने वाला आशिक नुमा अधिकारी जीवन में एक बार जरूर से मिलता है। सरकारी कामकाजनुमा आशिकी को सही तरीके से निभाने में अफसरनुमा आशिकों का नौकरी में बिताए गए सालनुमा तजुर्बा बहुत मायने भी रखता है।
पुराने खिलाड़ी अक्सर नई शिकायतों पर ही मरते मिटते हैं । और कोशिश करते हैं कि पुरानी महबूबा भूले से भी उनकी टेबल पर नाज नखरे ना दिखाए पाए। इससे बिना किसी सर दर्द के आज की हुकूमत को खुश रखने के साथ-साथ पुराने निजाम से रिश्तों पर आंच भी नहीं आने देते। चकला घर किसी का भी हो तवायफ कोई भी आ जाए, चलती भड़वों की ही है।
पर इस नामुराद प्रणाली के शिकार होकर आए नए साहब लोग कभी-कभी पूरे घर के बदल डालूंगा, के जज्बे के मारे एक साथ सभी उम्र की शिकायतों से प्रेम कर बैठते हैं। फिर उनको खुद को मजनू बनने से और ऑफिस को कोठा बनाने से रोकने में ही सारा टेन्योर निकल जाता है।
अब ऐसी ही एक शिकायत भूता के फॉरेस्ट गार्ड की नई अधिकारी के सामने नामजद हुई । शिकायत थी कि पिछले 5 सालों में उजड़े जंगल को फिर से बसान की ( राजश्री प्रोडक्शन की सुंदर परिवार बसाने की फिल्मी कहानियों की तरह) वृक्षारोपण की कोशिशों को फॉरेस्ट गार्ड ने पलीता लगा दिया था। और विभाग उसे बुझाने के बजाय इतने समय से उस पर रोटियां (और कभी-कभी मुर्गा भी ) सेंक रहा
लब्बोलुआब यह था कि वनरक्षक महोदय ने धांधली करते हुए वृक्षारोपण, जो 5 सालों में 125 हेक्टेयर का 25 हेक्टेयर के हिसाब से मिला था, उसे अपने पिताजी की रियासत जैसा मानते हुए उसमें मवेशी चराने से लेकर सारे तरह के हुकूक गांव वालों को दे दिए थे। नतीजा सरकारी पैसे का वृक्षारोपण बर्बाद हो चुका था और इतने दिनों के बाद भी फॉरेस्ट गार्ड जनाब का कोई एक बाल भी बांका नहीं कर पाया था। शिकायत का अंदाज कुछ गैरत को ललकारने जैसा भी बनाया गया था जिसका मजमून था कि नया अधिकारी भले ही कितने भी बड़े ऑल इंडिया सर्विस के अधिकारी हो तो पर भी वो गार्ड जनाब के कुछ खास तरह के बालों को भी बांका करने का ताव तक नहीं रखते थे।ब
- नए अधिकारी का पारा शिकायत के जंगल को नुकसान पहुंचाने वाले पक्ष से कम पर उसकी गैरत को ललकारने वाले पक्ष से ज्यादा, गर्म हो चला था । तो सारे तरह के बालों की हजामत बनाने के इरादे के साथ आनन-फानन में नई सरकारी जीप में पुराने स्टेनो और पुरानी टाइपराइटर मशीन के साथ भूता के जंगल का दौरा तय किया गया।
शिकायत में बताई गई जगह पर अजीब सा मंज़र था। रोपण का नाम और निशान नहीं था। और गांव के मवेशी और भैस मजे से अधिकारी का मुंह चिढ़ाते हुए उसकी अकल को चुनौती से देते हुए घास चर रहे थे। जगह-जगह मवेशियों के केटल सेट भी बने हुए थे और उन्हें पानी पिलाने के पुण्य कार्य के लिए कोटाना जैसे संरचनाएं भी निर्माण कर लिए गए थे।
कुल मिलाकर साफ दिखाई दे रहा था कि रोपण जैसी बेकार सी बात के लिए मिले सरकारी पैसे का अच्छा उपयोग मवेशियों की भलाई के पुण्य काम के लिए अपने स्तर पर फॉरेस्ट गार्ड करके जितना भी हो सके उतना पुण्य कमा चुका था। यह बात अलग थी कि इस पुण्य कमाई के दौरान बाय प्रोडक्ट के रूप में सरकारी गबन नाम की चीज भी मुंह बाए खड़ी हो गई थी।
वास्तव में सन्नाटे की शुरुआत यहां से होती है। यह सन्नाटा मौके पर गांव वालों के सामने फॉरेस्ट गार्ड को सस्पेंड करने के अधिकारी के जय घोष के बाद आया था। उसके पहले तो अधिकारी का दौरा मानो किसी त्योहार की तरह था। शोरगुल के साथ पीछे चलते हुए लोग इसके पहले विभागों के कामों की तारीफों के पुल बनते नहीं थक रहे थे ।इतना तो तय दिख रहा था की फॉरेस्ट गार्ड जनाब इन गांव वालों के दिलों पर राज कर चुका था। और शायद इसकी शिकायत के पीछे की असली वजह भी यही थी।
वजह चाहे जो भी रही हो मौके पर जो स्थिति थी शिकायत सही मिली। इंसान कितना भी बड़ा होकर लोगों के दिलों पर राज करने वाला ही क्यों ना हो अगर सरकारी कर्मचारी है तो उसका मूल्यांकन तो सरकारी नाप जोक के हिसाब से ही तय होता है । और इस हिसाब से वह हीरो फॉरेस्ट गार्ड गबन का दोषी था।
निलंबन का आदेश मौके पर ही टाइप होने लगा । पुराने स्टेनो और पुरानी टाइपराइटर से नए पन्नों पर नया आदेश जारी ही होने वाला था। किसी भी नए अधिकारी को अपनी कार्य क्षमता का बोलता हुआ उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए ऐसा करना जरूरी भी हो जाता था।
“एक जगह थोड़ा सा घूम के क्या तय कर रहे हो साहब। अब शिकायत है तो पूरा 125 हेक्टेयर का जंगल घूम के देखो फिर कोई तकलीफ की बात करो।“ सन्नाटे को चीरते हुए एक नेतानुमा नौजवान की आवाज गूंजी।
पूंछ पर पांव पड़ने पर उठने वाले सांप के फन की मानिंद उठी नजरों से अधिकारी ने उस बोलने वाले नौजवान नेता का सर से पैर तक जायजा लिया। फिर चारों ओर खड़ी गांव वालों की भीड़ की आंखों में उसके लिए मर मिटने से ज्यादा मार डालने जैसा भाव देखकर फन को नीचा कर जंगल घूमने की बात मान ली। यह प्रजातांत्रिक सत्य तो अब स्थापित हो चुका है का कि कसम भले मर मिटने की खाई जाती हैं पर वक्त पर काम हमेशा मार डालने के जज्बा से ही किया आता है।
आश्चर्यजनक किंतु सत्य यह था कि इलाके के बाकी जगह पर 5 सालों में किए गए वृक्षारोपण बुंदेलखंडी हवा में झूम-झूम कर विभाग के काम का जयजयकारा से करते पाए गए। वह भी तब जबकि सुरक्षा के इंतजाम की पशु अवरोधी पत्थरों की दीवार नजारद थी। याद आया कि पिछली शिकायतों में यह भी एक थी कि लाखों रुपए खर्च दिखाकर यह दीवार सुरक्षा की बनाई दिखा कर बनाई ही नहीं गई थी। और उसके पैसे गार्ड जनाब के मार्फत कई जेवो में पहुंच चुके थे। एक छोटी सी जेब लोकल थाने की भी लगती थी । जहां इस पशु रोधी सीपीडब्लू दीवार बनने के दूसरे दिन ही चोरी हो जाने की सरकारी FIR गार्ड जनाब ने जिम्मेदारी से दर्ज कराई थी। उतनी ही जिम्मेदारी से लोकल चौकी प्रभारी ने तुरंत जांच करके उसी हफ्ते अपराधी ना मालूम के नाम खात्मा रिपोर्ट भी फाइल कर दी थी और केस खारिज हो चुका था। यह गार्ड साहब के खिलाफ इस मामले में पैसा हड़पने की शिकायत झूठी पाई जाने की रिपोर्ट बनाने में शासन को भेजने के लिए बाकी की जेबों के काफी काम आई थी। ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल कर करने से समाज में किए गए अधिकतर अपराध का अपराधी हमेशा अज्ञात ही रह जाता करता है। यह बात ऐसे अपराधों पर खासतौर से लागू होती है जहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अपराध वोट नहीं दे सकने वालों के खिलाफ किया जा सकता है। प्राकृतिक संसाधन जंगल और वन्य प्राणी इसी तबके में आते हैं।
बहरहाल बिना किसी सुरक्षा के 100 हेक्टेयर के रोपण को सफल बनाना वाकई कमाल का काम था इसके ऐवज में 25 हेक्टेयर के जंगल में मवेशी चराई ,तालाब का पानी इस्तेमाल करने जैसी सामूहिक रिश्वत गांव वालों को देखकर गार्ड साहब ने इस रोपण की कीमत पर बाकी जंगल को अच्छा बनाने के साथ-साथ आने वाले दिनों में अपने पॉलीटिकल करियर का रास्ता भी बना लिया था। कर्मों की गति बड़ी न्यारी होती है । बुरे कर्म करने नहीं पड़ते वह तो नेचुरली होते रहते है और अच्छे कर्म होते नहीं ,करने पड़ते हैं या करने पड़ जाते हैं। यहां का माहौल भी कुछ ऐसा ही लग रहा था।
जांच टीम वापस लौट गई। दो रिपोर्ट बनी एक 25 सेक्टर के रोपण को बर्बाद करने की शिकायत सही पाए जाने के कारण गार्ड साहब को सस्पेंड कर उनके खिलाफ कार्रवाई करने की। दूसरी 100 हेक्टेयर के जंगल क्षेत्र को हरा-भरा करने के बेहतरीन अंजाम देने के लिए उन्ही गार्ड साहब को आने वाली 26 जनवरी को माननीय मंत्री जी के हाथों प्रशस्ति पत्र और पुरस्कार देने की।
कहना ना होगा कि यह अजीब सा लग रहा था कि उस 26 जनवरी को गार्ड जनाब पहले ऐसे कर्मचारी बने जिनके एक हाथ में प्रशस्ति पत्र था और एक हाथ में निलंबन आदेश। इस बाबत का फोटोग्राफ और समाचार अगले दिन छपा था और उसके साथ ही अधिकारी के ट्रांसफर का भी। यह बात अलहदा है कि उसी समाचार के बाजू में दैनिक सत्संग के कॉलम में उस दिन का बोध वाक्य भी लिखा था:
- किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
- तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
25 हेक्टेयर के रोपण का पैसा हजम कर रोपण को नष्ट करने की शिकायत अब जन भागीदारी से वन सुरक्षा करने की अनुपम मिसाल बनने की राह पर थी। इसके बाद जन भागीदारी से वन सुरक्षा की होड़ सी मचने वाली थी। जितनी ज्यादा जन भागीदारी उतने ही प्रशस्ति पत्रों का कायदा लागू होने वाला था । बिस्मिल के कहे शेर के मुताबिक इस प्रकार जंगलों के कत्ल होने की उम्मीद में खींचे चले आने वाले जन भागीदारी के के आशिक अफसरों का जमघट बढ़ते ही जाना था जहां अब एक दिन जंगलों की सुरक्षा मे 100 प्रतिशत की जन भागीदारी सुनिश्चित थी । अब ऐसे गार्ड जनाब क्षेत्र के जनता के नुमाइंदे बनने वाले थे और ऐसे अधिकारियों को बड़े-बड़े प्रशस्तियां भी मिलने वाली थीं।
- उस दिन के बोध वाक्य का सार :
कर्म क्या है और अकर्म क्या है — इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं।
विभागीय शैली बनने की राह पकड़ चुकी थी। सब मोहित हो चुके थे। कर्म , अकर्म और विकर्म का कोई अंतर भी अब मिटने ही वाला था ।अब ऐसी शिकायतें आनी भी बंद होने वाली थी ।
- लेखक-(आईएफएस तापेश झा)
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