रायपुर। ये सच्चाई है कि चुनावी माहौल(Election environment) में रायपुर हो या कोई और शहर। हर जगह अब मजदूरों की संख्या नगण्य हो गई है। कहने का मतलब है कि मजदूरों का एक तबका इस समय शहरी और ग्रामीण अंचलों में चुनावी रैलियों में(In election rallies in urban and rural areas) भाग ले रहा है। इन्हें कितना मेहनताना मिल रहा, इसका कोई पुख्ता सबूत तो नहीं है। हां, लेकिन चर्चाओं के मुताबिक हर दिन उनकी दिहाड़ी से दोगुना राशि दी जा रही है। एक अंदाज के लिहाज से करीब 500 से 700 रुपए दिए जाने की बात सामने आ रही है। रायपुर के कोतवाली के पीछे गांधी चौक की चौड़ी पर अब मजदूरों की भीड़ नहीं दिखती है। सिर्फ एक्का-दुक्का ही दिखते हैं। राजधानी में निर्माणाधीन भवनों के काम पर मजदूर नहीं आ रहे हैं। जिससे निर्माण कार्य में देरी हो रही है, मजदूरों के बहाने भी हैं कि उनका कोई परिचित या रिश्तेदार चुनावी मैदान में है। इसलिए वे अब मतदान करने के ही बाद ही आए पाएंगे। कमोवेश यही हालत अन्य जिलों के शहरी और ग्रामीण अंचलों के भी हैं।
मजदूरों को यहां पर दिनभर काम करना पड़ता है। वहीं, चुनावी प्रचार-प्रसार के दौरान उन्हें कम समय तक ही शामिल होना पड़ता है। लिहाजा, साइट के कामों को छोड़कर मजदूर प्रचार-प्रसार वाले काम में शामिल होने में रुचि दिखा रहे हैं।
शहर के अलग-अलग हिस्सों में लगने वाली चौडिय़ां इस समय दो घंटे में खाली हो जा रही हैं। आम दिनों की बात करें तो दोपहर तीन बजे तक लगभग चौडिय़ों में मजदूर मिल जाते थे। मगर, इन दिनों अधिकांश चौडिय़ों में सुबह-सुबह एक से दो घंटे मे चौडिय़ां खाली जाती हैं। लेटलतीफी करने वाले ठेकेदारों और आम लोगों को दो घंटे बाद मुश्किल से मजदूर मिल रहे हैं
चुनावी प्रचार-प्रसार के लिए पुरुष मजदूरों से ज्यादा महिला मजदूरों की मांग हो रही है। कुछ मजदूरों ने बताया कि पुरुष मजदूर ज्यादा दाम मांगते हैं, इस कारण कम खर्च करके प्रचार के लिए महिला मजदूरों को ले जाया जाता है। वैसे भी नेताओं को रैली में भीड़ दिखानी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनमें पुरुष मजदूर ज्यादा हैं या महिला।
शहर की अधिकांश जगहों पर ठेकेदारों द्वारा निर्माण कार्य पूरा करने की तिथि बढ़ाई जा रही है। ठेकेदारों का कहना है कि चौड़ी से मिलने वाले मजदूर कम हो गए हैं। इसके चलते काम प्रभावित हो रहा है।