नई दिल्ली, 8 अक्टूबर (आईएएनएस)। राजस्थान में लंबे समय तक कांग्रेस जब सत्ता पर काबिज रही और जब सत्ता से बाहर रही, दोनों ही समय में खेमेबाजी की शिकार होती रही। इसमें दो खेमे वहां साफ नजर आ रहे थे। एक था पार्टी के वरिष्ठ नेता और गांधी परिवार के बेहद करीबी अशोक गहलोत का खेमा, तो दूसरा कांग्रेस के युवा नेतृत्व के सबसे प्रचलित चेहरे सचिन पायलट का खेमा।
राजस्थान में कांग्रेस (Congress in Rajasthan) की सरकार जब बनने वाली थी तो सचिन पायलट (Sachin Pilot) को लग रहा था कि शायद कांग्रेस आलाकमान उनकी राजस्थान चुनाव में मेहनत की मुरीद होगी और उन्हें सीएम पद की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। लेकिन, पार्टी में जादूगर के नाम पर जाने जाने वाले अशोक गहलोत ने सचिन के हाथ से सत्ता पर काबिज होने वाली बाजी छीन ली। थोड़े दिन बाद सचिन पायलट नाराज हुए तो फिर अशोक गहलोत पार्टी आलाकमान को अपने पक्ष में समझाने में कामयाब हुए और एक बार फिर सचिन पायलट को ही झुकना पड़ा। फिर, राजस्थान विधानसभा चुनाव के समय भी गहलोत और पायलट के बीच मतभेद देखने को मिले। लेकिन, पार्टी बताती रही कि दोनों नेताओं के बीच किसी किस्म का मतभेद नहीं है और पार्टी एकजुट है।
ऐसे में सचिन पायलट कांग्रेस आलाकमान के साथ नजदीकियां तो बढ़ाते रहे, लेकिन, पार्टी के भीतर सारी बातें अशोक गहलोत की ही मानी जाती रही। हालांकि, कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का भरोसा सचिन पायलट पर बना रहा। वहीं, अशोक गहलोत नंबर पाने के मामले में सबसे ऊपर रहे। कांग्रेस पार्टी ने सचिन पायलट को स्टार प्रचारक बनाकर हरियाणा भेजा। इससे साफ पता चल रहा था कि कांग्रेस का भरोसा सचिन की राजनीतिक कुशलता पर बरकरार है। पायलट ने भी यहां करीब 20 से ज्यादा रैलियां कीं और पार्टी के फैसले का पूरा सम्मान किया। लेकिन, हरियाणा में भी पार्टी के भीतर राजस्थान वाला अंतर्कलह साफ नजर आ रहा था।
हरियाणा कांग्रेस के नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा तो सचिन पायलट के योगदान को इस बीच सराहते हुए कहते रहे कि ‘मुझे लगता है कि यहां कांग्रेस जीतने जा रही है। इस जीत में एक बहुत बड़ा योगदान सचिन पायलट का भी होने जा रहा है।’ इधर, पायलट कैंप के लोग भी उत्साहित थे कि अगर हरियाणा में कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करेगी तो इसका इनाम सचिन को जरूर मिलेगा। वैसे एक और बात रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद पर भी पायलट की नजर रही है। ऐसे में उनके समर्थक सोच रहे थे कि अगर पायलट हरियाणा में कांग्रेस को जीत दिलाने में कामयाब रहे तो पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंचने के लिए उनका रास्ता आसान हो जाएगा।
सचिन पायलट ओबीसी वर्ग का बड़ा चेहरा हैं। लेकिन, राजस्थान में जिस तरह से उनके साथ हुआ था, कुछ वैसा ही हरियाणा में कुमारी शैलजा के साथ भी हुआ। हरियाणा के चुनाव में तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला तक सीएम बनने की इच्छा जाहिर करते रहे। भूपेंद्र सिंह हुड्डा दो बार इस राज्य के सीएम रह चुके हैं और तीसरी बार के लिए वह अपनी फिल्डिंग सजाकर बैठे थे। दलित और महिला कार्ड खेलकर और साथ ही पार्टी आलाकमान से नजदीकी बढ़ाकर कुमारी शैलजा सीएम की कुर्सी पर नजर टिकाए हुए थीं। ऐसे में चुनाव परिणाम से पहले ही कांग्रेस के भीतर घमासान हरियाणा में शुरू हो गया था।
चुनाव परिणाम आने से ठीक दो दिन पहले से ही दिल्ली में कुमारी शैलजा और भूपेंद्र सिंह हुड्डा डेरा डाले बैठे थे। दोनों में से कोई भी चुनाव परिणाम के साथ अपनी दावेदारी ठोंकने में देर करने के मूड में नहीं थे। हालांकि, कांग्रेस के अंतर्कलह और आम आदमी पार्टी की वहां के चुनाव में एंट्री ने पार्टी का खेल बिगाड़ दिया और भाजपा एक बार फिर से हरियाणा में बड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब हुई। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सीएम पद को लेकर पैटर्न देख लें तो स्पष्ट हो जाएगा कि पार्टी भले ही बिना चेहरे के चुनावी मैदान में कहीं उतरी हो, लेकिन जिसकी अगुवाई में प्रदेश में चुनाव लड़ा गया अंततः सरकार बनने की स्थिति में उसे ही सीएम की कुर्सी सौंपी गई। ऐसे में कुमारी शैलजा को लग गया था कि कहीं राजस्थान की तरह ही हरियाणा में भी सरकार गठन के साथ उन्हें ड्राइविंग सीट के बजाए बैक सीट पर ना बैठना पड़ जाए।
हालांकि, अब इस लड़ाई का प्रदेश में कोई मतलब नहीं रह गया क्योंकि कांग्रेस के अंतर्कलह ने उसे सत्ता तक पहुंचने ही नहीं दिया। गौर करें तो कुमारी शैलजा कांग्रेस का दलित चेहरा हैं, पांच बार की सांसद हैं और सोनिया गांधी की बेहद करीबी भी मानी जाती हैं। इसके साथ ही राहुल गांधी जिस तरह से सामाजिक न्याय के एजेंडे को लेकर आजकल आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे में लगने लगा था कि कहीं भूपेंद्र सिंह हुड्डा के सियासी सफर और सीएम की कुर्सी पर कुमारी शैलजा भारी ना पड़ जाएं।
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